संदेश

अधूरे ख्वाब

अधूरे ख्वाब के लिए ---

चित्र
                            शाह साहब की मौत की खबर दिल्ली में आग की तरह फैली पर दिल्ली तो पिछले पचास बरस से बदअमनी की आग में झुलस रही थी .शाह साहब ने अपनी जिंदगी में दस बादशाहों को तख्त से तख्ते तक का सफ़र करते देखा था .दिल्ली के तख्त पर कब्जा कर बाबर ने जिस मुगल वंश की शुरुआत लगभग डेढ़ सौ बरस पहले की थी ,के तख्त पर  अब शाह आलम काबिज़ था .आलमगीर की मौत के बाद दिल्ली के तख्त पर जिस तरह से एक के बाद एक निकम्मे और नाकारा बादशाह बैठे थे उनसे हिंदुस्तान को पूरी तौर पर इस्लामी मुल्क बनाने का ख्वाब अपनी आँखों के सामने टूटते बिखरते देख शाह साहब ने बहादुरशाह से लेकर मुहम्मद शाह तक हर बादशाह को हिंदुस्तान में मुकम्मल तौर पर शरिया नाफ़िज करने के लिए तैयार किया था पर हर बार इन निकम्मे शहंशाहों से उन्हें मायूसी ही हासिल हुयी थी .और जब तख्त की हिफाजत के लिए इन बेगैरत और बदजात बादशाहों ने कभी मराठों ,कभी जाटों तो कभी राजपूतों के आगे गिडगिडाना शुरू कर दिया तो शाह साहब को यकीन हो गया कि अब बाबर की इस नस्ल में अब इतनी कुव्वत नहीं बची कि वह हिंदुस्तान पर अब और आगे राज कर सके .अपने नाम के साथ देहलवी तखल्लुस ल

विभाजन और साम्प्रदायिकता के स्रोत: सर सैय्यद अहमद खान

चित्र
                                              -अरविंद पथिक      1858 की प्रतीकात्मक   हिन्दू – मुस्लिम एकता की धज्जियां सबसे पहले जिस व्यक्ति ने उड़ाई वह था सैयद अहमद खान जिसे अंग्रेजों ने सर की उपाधि से उसके इस भारत और भारतीयों विरोधी कार्य के लिए सम्मानित किया था . सर सैय्यद के पूर्वज मुगल दरबार में उच्च पदों पर कार्य करते थे . सर सैय्यद भी 1847 में ब्रिटिश सरकार की सेवा में आये . वह 1857 में तत्कालीन बरेली जिले की बिजनौर तहसील में सदर अमीन जिसका कार्य मुंसिफ मजिस्ट्रेट स्तर का होता था के पद पर तैनात थे . जब बिजनौर से अंग्रेज भाग गये तो सर सैय्यद ने बखूबी अंग्रेजों के प्रशासन को   क्रांति के उस काल में भी चलाए रखा . सर सैयद ने स्थानीय मुस्लिम क्रांतिकारियों को समझाया कि अंग्रेजों का शासन मुसलमानों के हित में है . क्रांति के पूरी तरह समाप्त होने से पूर्व ही सर सैय्यद ने 1858 में दो पुस्तकें उर्दू में लिखीं पहली पुस्तक थी ‘ बिजनौर में ग़दर के वज़ुहात ‘ और दूसरी थी ‘ असबाब ए - बगावत – हिन्द ‘. इन पुस्तकों में सबसे पहले इस क्रांति को ‘ गदर ’ कहा गया है .’ गदर ‘ शब्द के इस्तेमाल पर पाकिस
चित्र
वर्ष २००६ में प्रकाशित मेरे महाकाव्य -'बिस्मिल चरित ' से -- पं० रामप्रसाद बिस्मिल की अंतिम यात्रा जंगल में आग फैलती ज्यों ,फैली बिस्मिल बलिदान खबर  जेल स्वयम ही कैद हुयी ,आहत हो दौड़ा पूरा नगर जिसने भी सुना ,रह गया सन्न,मन खिन्न, हृदय था भग्न हुआ अग्रेजी न्याय बेशर्मी से चौराहों पर ही नग्न हुआ सोया भारत बिलबिला उठा ,जनता चोंकी फिर क्रुद्ध हुयी सैलाब उमड़ आया हो ज्यों गोरखपुर की यह दशा हुयी कम से कम एक से सवा लाख लोगों ने जेल को घेरा था लाल हुयी आँखे सबकी गुस्से का गम का बसेरा था “तोड़ो इस जेल के फाटक को ,तोड़ो यह कारा गुलामी की झकझोरो ,झिन्झोड़ो सत्ता सत्ता को आदत यह छोडो सलामी की बिस्मिल के अंतिम दर्शन से वंचित न कही हम रह जाएँ आघात सहे हैं बहुतेरे अपमान और न सह जाये तोड़ो –तोड़ो ,जल्दी तोड़ो कारागृह की दीवारों को ही मारो-मारो कसकर मारो,अंग्रेजों को मक्कारों को घबराए जेल प्रशासन के फूल गये थे हाथ पैर शायद ही प्राण बचेंगे अब ईश्वर से मनाने लगे खैर हिम्मत कर पहुंचा छत ऊपर फिर हाथ जोड़ जेलर बोला ---- सौगंध आपको बिस्मिल की कह करके उसने मुंह खोला--- “जैसा भी आप बताएँगे वैसा करने को प्

पीली दाल

चित्र
   होगा कभी दाल रोटी आम आदमी का भोजन पर जिस तरह से इस बार दाल ने भाव खाया है   बेचारे  चिकन की तो मानों इज्ज़त ही कुछ नहीं रही .दिल्ली की कई सरका रें प्याज के आंसुओं में बह गयीं पर दाल ने तो मानों प्याज के छिलके ही उतार कर रख दिए .साबिर मियां  मिल गये कल बाज़ार में हमे देखते ही चुटकी लेने लगे –“--और कहो पंडत जी –कैसी कट रही है , आप तो दाल भात उड़ाते हो रोज तभी दिन पर दिन फूल कर  कुप्पा हुए जा रहे हो .” हम कभी किसी का उधार नहीं  रखते सो   – तुर्की बतुर्की जबाव दिया – “ मियां हम तो दाल का पानी पीकर भी फलने - फूलने की कुव्वत रखते हैं  तुम रोज मुर्गे की टांग निचोड़ कर भी सुक्खू मियां के नवासे  क्यों नजर आते हो जनाब  ? ”    साबिर तो मानो आज अगला पिछला हिसाब पूरा करने का   मूड बनाकर आये थे – बोले –“  पंडत  जी हम तो आजकल रोज मटन और चिकन उड़ा रहे हैं . १५० रूपये किलो मुर्गा खाके सेहत बनाना अक्लमंदी है या २०० रूपये किलो की दाल खाकर सा री रात बदबू फैलाना , सच पूछो तो   हम तो इस नई सरकार के शुक्रगुज़ार हैं . पिछले २ महीनों से