आज विजयादशमी यानी दशहरा है।सनातन धर्म के चार महापर्वों में से एक।साहस,शौर्य और न्याय की जीत का पर्व।मर्यादा और आर्य संस्कृति के जयघोष का पर्व तो सर्वप्रथम तो आप सभी को इस महापर्व की अनेकानेक शुभ कामनायें।मित्रों वर्तमान में भी आसुरी शक्तियां जो रूप बदलकर मारीचि और सुबाहू से लेकर मेघनाद जैसे महाबली तक की शक्लबदलकर  मौज़ूद है।रावन जैसी विद्वता ,तप और अहंकार से उन्मत्त सत्ता शिखर तथा बालि जैसा परक्रमी परंतु चरित्रहीन चरित्र पग पग पर आसुरी अट्टहास करते विचरण कर रहे हैं।ऐसे में सत्य राम की तरह साधनहीन ,वनवासित उत्पीडित उपेक्षित है।बिना निश्छल प्रेम और समर्पण के हनुमान और सुग्रीव के सहयोग के अन्याय द्वारा संचित स्वर्ण लंका को ध्वस्त कर पाना मर्यादा पुरूषोत्तम के लिये भी संभव नही है।लंका ध्वंस को साधन-संपन्न सेनाये नहीं गिरि-कंदराओं का आत्मबल और समर्पण चाहिये।एकांत साधना कर रहे महर्षिओं का आशीष चाहिये।एक बार इंद्र को विश्वास हो जाये तो स्वर्ग के साधन तो स्वयं ही उपलब्ध हो जायेंगे।ये विश्वास जगेगा तप से,त्याग से परंतु जो दूसरे के मान-सम्मान और अधिकार का हरण करता हो ,जो रिश्तों की गरिमा और पवित्रता भूल गया हो ऐसे बालि का वध करने के लिये किसी भी छल से परहेज त्याज्य है।जो नाभिकुंड में अमृत धारण कर सम्मुख युद्ध करने का दिखाबा कर रहे हों उनके अमृत का पता लगाने को विभीषणों को शरण देना भी सर्वथा उचित है।सत्ता जिनके लिये निजी श्रेष्ठता और सुख का साधन मात्र हो ऐसे रावणों को नष्ट करने के लिये नाभि क्षेत्र पर वार करके ही दसो सिरों को काटना सार्थक हो सकता है।
केवल राम का चरित्र ही भारतीय मनीषा ने ऐसा गढा है जो हर तरह से अनुकरणीय है राम के लिये पिता का आदेश सर्वोपरि है पर वे पिता के चरित्र का अनुकरण कर बहुपत्नी विवाह का समर्थन नही करते।राज्य उनके लिये दायित्व है।काल तक जिन राम से प्रार्थना करने को विवश है वे राम लोक-लाज से डरते हैं ।लोक से बडा कोई नहीं।
राजा राम -व्यक्ति राम के साथ अन्याय करता है चाहे वह सीता का प्रकरण हो या शंबूक का परंतु अंततः जलसमाधि लेकर स्वयं को सजा भी देता है।सत्ता का मुकुट
सुविधा का नहीं संघर्ष और सेवा का क्षेत्र ही है राम के लिये।संपूर्ण जीवन औरों के लिये ,समाज के लिये,रिश्तों के लिये लोक के लिये अर्पित कर देना और निजी दुख -तकलीफ की चर्चा तक ना करना मेरी समझ  में विजयादशमी का यही संदेश है।अंत में राष्ट्रकवि के शब्दों में---
राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है कोई कवि बन जाय सहज संभआव्य है।
जय श्रीराम

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