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प्रिये मुझको स्वार्थी होने का यों इलज़ाम ना दे

वर्ष १९९८ में लिखा गया और मेरे दूसरे गीत संग्रह 'अक्षांश अनुभुतियों के' में प्रकाशित-- प्रिये मुझको स्वार्थी होने का यों इलज़ाम ना दे देना है तो प्यार से दे ,वरना रिसकर ज़ाम ना दे मान तू रखती है तो रख पर मेरा अपमान मत कर प्यार की इस पीर को सिर्फ मेरे नाम मत कर मान रखने को तेरा मैने सदा तुझको मनाया सिर्फ मन रखने को ही तू एक दिन मुझको मना ले प्रिये मुझको स्वार्थी होने का यों इलज़ाम ना दे स्वप्न की सृष्टि रचाई पर स्वयं रीता रहा हूं सुधा दी सबको ही मैने ,गरल खुदा पीता रहा हूं गीत मेरे सब तुम्हारे हैं ,मेरा कुछ भी नहीं है फिर भी मुझको स्वार्थी कहना प्रिये कितना सही है? मेरे निश्छल प्यार को तू स्वार्थ का तो नाम ना दे प्रिये मुझको स्वार्थी होने का यों इलज़ाम ना दे क्या कहा कि प्रेम में तुमने ही केवल दर्द पाया? चैन खोया ,नींद खोयी,ह्रदय भी अपना गंवाया प्रेम के इस यज्ञ में मैं भी समर्पित हो चुका हूं चैन क्या औ नींद क्या ? मैं खुद ही अर्पित हो चुका हूं यज्ञ की इस भस्म को तू धूलि का तो नाम ना दे प्रिये मुझको स्वार्थी होने का यों इलज़ाम ना दे देना है तो प्यार से दे ,वरना