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व्यस्तता में भी मगर तुम ,खत हमें लिखती रहो

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तुम अगर हो व्यस्त तो फिर व्यस्त ही दिखती रहो व्यस्तता में भी मगर तुम ,खत हमें लिखती रहो बात लिख देने में है जो,कहने में होती नहीं पीर मन की तो ज़ुबां से व्यक्त ही होती नहीं भले दिल में दर्द हो पर यों ही खुश दिखती रहो व्यस्तता में भी मगर तुम ,खत हमें लिखती रहो लिखने-पढने का चलन माना पुराना हो चला शब्द-रस-विन्यास का ज़ादू भी है अब खो चला वक्त से लम्हे चुरा स्क्रीन पर दिखती रहो मेरे मैसेज बाक्स में तुम कुछ ना कुछ लिखती रहो प्यार फुरसत के समय में तो कभी होता नहीं प्यार से बढ व्यस्तता-कारण कोई होता नहीं नित-नये सौ-सौ बहानों की कला सिखती रहो मेल-मेसैज-पर्चियां जो मन करे लिखती रहो ये तो तय है मुंहज़बानी कह कभी पाते नहीं प्यार के अल्फाज़ होठों तक यों ही आते नहीं बंद पलकों से खुली तक तुम ही तुम दिखती रहो ज़िंदगी रसमय करे संदेश वे लिखती रहो तुम अगर हो व्यस्त तो फिर व्यस्त ही दिखती रहो व्यस्तता में भी मगर तुम ,खत हमें लिखती रहो

-'मां तुझे सलाम'

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यों तो लेखन से जुडे होने के कारण  रोजान तमाम तरह की पुस्तकों से गुजरना होता ही है ,इसी क्रम में क्वालिटी पब्लिशिंग कंपनी ,भोपाल से प्रकाशित 'मां तुझे सलाम'संग्रह को देखने का सौभाग्य मिला।'खंडवा'मध्यप्रदेश के उत्साही लेखक आलोक सेठी द्वारा विश्व भर की चुनिंदा मां ओं पर आधारित गीत गज़ल,संस्मरण,प्रेरक-प्रसंग कहानी संस्मरण आदि का एक ऐसा अनूठा संग्रह जो अपने मुख पृष्ठ से ही आकर्षित कर लेता है।संग्रह के फ्लैप पर कला समीक्षक संजय पटेल लिखते हैं---------"----------मां तुझे सलाम आलोक सेठी का सबसे ज़्यादा वंदनीय और सराहनीय सुकर्म है।ज़माने भर के कवियों और शायरों को एक दस्तावेज की शक्ल में उन्होंने एक जगह इकट्टा कर बडा पुण्य कमा लिया है----।" संजय पटेल के इस कथन में तब रंच मात्र भी अतिशयोक्ति नही नज़र आती जब पाठक इस अद्भुत पुस्तक को पढना प्रारंभ करता है।अमर शहीद पं० रामप्रसाद बिस्मिल की मां मूलमती देवी से लेकर क्रिकेटर युवराज सिंह तक की मां के प्रेरणा प्रसंगों को जिस तरह से लेखक ने जीवंतता से अपनी कलम के माध्यम से उकेरा है वह सचमुच सराहनीय है।व्यापार के गुणा-भाग के बीच

२६ अक्टूबर को खंडवा के भाई राजेंद्र परिहार ने एक अखिल भारतीय कवि सम्मेलन के लिये आमंत्रित किया

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मित्रों कई बार गंभीर लेखन समसामयिक संदर्भों से काट देता है।हिंदी काव्य मंचों की स्थिति जैसी भी है किस से छिपी नही है परंतु आर्थिक रूप से हिंदी कविता को जो सशक्त आधार कवि सम्मेलनों ने दिया है उसे भी नकारा नहीं जा सकता।'बिस्मिल चरित'के लेखन के दौरान शोध करते हुये और फिर बिस्मिल जी के चरित्र से अभिभूत हो जिन चीजों को मैने अपने जीवन -मूल्यों में शामिल कर लिया वे मंचीय  सक्रियता में आडे आती हैं नतीजा यह हुआ कि मेरी काव्य यात्रायें सीमित और चूजी होती गयीं।कुछ मित्रों के आग्रह पर गया तो चुटुकुलों और कविता की चौर्य परंपरा के विरूद्ध वक्तव्य दे दिया। नतीजा ये हुआ कि जिसे आज हिंदी मंचीय कविता की मुख्य धारा कहते हैं उसके लिये मेरी मंच पर उपस्थित असहनीय होती गयी फिर भी मंच को अलविदा ना कहने के पीछे मेरा सदैव ये विचार रहा कि ओछे लोगों के लिये खुला मैदान छोड देना भी अपराध से कम नही होगा।दूरदर्शन,आकाशवाणी स्तरीय कवि सम्मेलनों का संयोजन तथा शालीन संयोजकों की तलाश कभी बंद नही की। राजधानी दिल्ली में हिंदी अकादमी दिल्ली ने मुझे सर्वप्रथम मंच प्रदान किया वर्ष १९९५ में और १९९९ के बाद शायद ही हिं

राम का चरित्र ही भारतीय मनीषा ने ऐसा गढा है जो हर तरह से अनुकरणीय है

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आज विजयादशमी यानी दशहरा है।सनातन धर्म के चार महापर्वों में से एक।साहस,शौर्य और न्याय की जीत का पर्व।मर्यादा और आर्य संस्कृति के जयघोष का पर्व तो सर्वप्रथम तो आप सभी को इस महापर्व की अनेकानेक शुभ कामनायें।मित्रों वर्तमान में भी आसुरी शक्तियां जो रूप बदलकर मारीचि और सुबाहू से लेकर मेघनाद जैसे महाबली तक की शक्लबदलकर  मौज़ूद है।रावन जैसी विद्वता ,तप और अहंकार से उन्मत्त सत्ता शिखर तथा बालि जैसा परक्रमी परंतु चरित्रहीन चरित्र पग पग पर आसुरी अट्टहास करते विचरण कर रहे हैं।ऐसे में सत्य राम की तरह साधनहीन ,वनवासित उत्पीडित उपेक्षित है।बिना निश्छल प्रेम और समर्पण के हनुमान और सुग्रीव के सहयोग के अन्याय द्वारा संचित स्वर्ण लंका को ध्वस्त कर पाना मर्यादा पुरूषोत्तम के लिये भी संभव नही है।लंका ध्वंस को साधन-संपन्न सेनाये नहीं गिरि-कंदराओं का आत्मबल और समर्पण चाहिये।एकांत साधना कर रहे महर्षिओं का आशीष चाहिये।एक बार इंद्र को विश्वास हो जाये तो स्वर्ग के साधन तो स्वयं ही उपलब्ध हो जायेंगे।ये विश्वास जगेगा तप से,त्याग से परंतु जो दूसरे के मान-सम्मान और अधिकार का हरण करता हो ,जो रिश्तों की गरिमा और पव

रख दे कोई ज़रा सी खाके वतन कफन में

अमर शहीद पं० रामप्रसाद बिस्मिल के बलिदान से दो दिन पूर्व १७ दिसंबर को फैज़ाबाद की ज़ेल मे जिस महान बलिदानी ने फांसी का फंदे को चूमा था उसका नाम है अशफाक उल्ला खां।वे जितने बडे क्रांतिकारी थे शायर भी उतने ही बडे थे।'हसरत' नाम से शायरी करने वाले इस महान बलिदानी  के अमतिम दिनो की शायरी के नमूने आपके समक्ष रख रहा हूं---- अफसोस क्यों नहीं वेह रूह अब वतन में? जिसने हिला दिया था दुनिया को एक पल में ऐ पुख्ताकार उल्फत हुशियार डिग न जाना मराज़ आसकां हैं इस दार औ रसन में मौत और ज़िदगी है दुनियां का सब तमाशा फरमान कृष्न का था,अरजुन को बीच रण मे कुछ आरज़ू नहीं है,है आरज़ू तो यह है, रख दे कोई ज़रा सी खाके वतन कफन में सैयाद ज़ुल्म पेशा आया है जब से हसरत हैं बुलबुलें कफस में ज़ागो ज़गन चमन में दोस्तों इस गज़ल को पढने के बाद लगा   कि पं० जगतनारायण मुल्ला को मिला साहित्य अकादमी पुरस्कार भी कुत्ते का बिस्किट था जिसे भारतसरकार ने उन्हे शायद इसलिये खिलाया था लगा  कि वे शांत होकर लाखों भारतवासियों को बिस्मिल और अशफाक की गज़लें कविता, अपनी शिराओॅ में महसूस करने का अवसर दें ,पर देशवासिय

अरविंद केजरीवाल'व्यवस्था के विरूद्ध ज़रूरी और ईमानदार लडाई लड रहा है

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मित्रों बहुत दिन से गंभीरता से मैने कुछ नही लिखा ।ऐसी बात नहीं कि मुद्दे नहीं थे विचार नही थे बस अन्ना आंदोलन को लेकर जो कुशंकायें मैने व्यक्त की थीं उनके सही हो जाने से दुखी था।फिर विश्व हिंदी सम्मेलन को लेकर जो भी लिखा तो कुछ मित्रों को लगा ये उन्हे लक्ष्य कर लिखा गया और कुछ ने मेरी निजी कुंठा माना ।इन सब घटनाओं से लगा कि फेसबुक गंभीर बातों का मंच नहीं,हम निकले तो थे दोस्त बनाने मगर यहां भी दुश्मन जमा कर लिये।किसी शायर ने कहा है--- मैं राहे न जाने क्या-क्या बदलता रहा मगर साथ सेहरा तो चलता रहा,    हो सकता है इस शेर को गलत तरह से कोट करने के लिये कोई गालिब अभी डांट लगाने के लिये नमूदार हो जाये-------- ऐसी ही बातों से घबरा कर सिर्फ बेसिर-पैर की अपनी गज़ले-कवितायें पोस्ट करता रहा हूं,कही गहरे अवसाद की मनःस्थिति में ।उस आम आदमी की मनः स्थिति में जो लोकपाल को जोकपाल और भ्रष्टाचार के विरूद्ध लडाई को कांग्रेस -बीजेपी की नूरा कुश्ती में तब्दील होते देख हतप्रभ है।आप जो बोलिये -लिखिये सुनने पढने वाला किसी न किसी पार्टी के चश्मे से ही देखेगा ।तो क्या करें--अरविंद केज़रीवाल को जो लोग खुजलीव

-'जप-तप,योग-साधना एवं यज्ञ से आगे------------?'

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मेरे पुराने मित्र किशोर श्रीवास्तव किसी ना किसी बहाने कुछ नया करते रहते हैं वह चाहें 'हम सब साथ साथ के माध्यम से हो',कार्टून प्रदर्शनी के माध्यम से या फिर फेसबुक मैत्री सम्मेलन के माध्यम से किशोर जी में लोगो को जोडने की अद्भुत कला है।मुझसे उम्र में दशाधिक वर्ष बडे किशोर तन मन से किशोर हैं।वही उत्साह,चंचलता और चापल्य।पुसा में पिछले दिनो कविता प्रतियोगिता का निर्णायक बनाकर लंबे समय से लंबित मुलाकात को निस्तारित कर किशोर ने '२९-३० सितंबर को भरतपुर फेसबुक मेत्री सम्मेलन में चलने का अनुरोध किया और मैने भी बिना दिन -समय का ध्यान दिये स्वीकृति दे दी।तय हुआ पं० सुरेश नीरव जी के साथ कार से भरतपुर जाया जायेगा पर 'लास्ट वर्किंग डे' २९को हो जाने के कारण और कैजुअल लीव न होने से २९ को जा पाना समभव ना हुआ किशोर जी का आग्रह था कि इस कार्यक्रम में शामिल हों।अंततः तय हुआ कि ३० को जाया जाये। उधर कार्यक्रम के स्थानीय आयोजक अशोक खत्री जी 'अपना घर' की जो तस्वीरें शेयर कर रहे थे वे उत्सुकता कम और जुगुप्सा अधीक जगा रही थी।फिर लगभग १बजे ३० सितंबर को नीरव जी के साथ रसपान करते हु

कुछ के अधरों पर गुलाब हैं और स्वयं कुछ रजनीगंधा

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दोस्तों शायद ये वर्ष १९९६ मार्च की बात है जाकिर हुसैन कालेज में ' आदाब ' ने एक कवि सम्मेलन कराया तब हम २४ वर्ष के बाकायदा नौजवान हुआ करते थे ।अल्हड बीकानेरी की अध्यक्षता में नौजवान श्रोताओं के बीच उस दिन अपना रंग इस कदर जमा कि कई सुंदरियों ने आटो ग्राफ लिये।मेरे लिये पहला अनुभव था।उसी हर्षा तिरेक में घर पहुंचते ही एक गीत लिखा गया जो वर्ष २००३ में प्रकाशित मेरे गीत संग्रह ' अक्षांश अनुभूतियों में संग्रहीत है"  आज आपके समक्ष हाज़िर करता हूं---- मेरे चारों ओर भीड है पुष्प -गुच्छ मालाओं वाली किंतु , प्रिये इस अंतर्मन का कोमल कोना खाली खाली मेरे हस्ताक्षर लेती हैं कोमल कलिका सी बालायें मन को भेद -भेद जाती हैं तन्वंगी नाज़ुक अबलायें तेरी प्राण-लता ना इनमें कह उठता है मन का माली मेरे चारों ओर भीड है पुष्प -गुच्छ मालाओं वाली कुछ के अधरों पर गुलाब हैं और स्वयं कुछ रजनीगंधा हर चेहरा सुंदर लगता है , हे ईश्वर क्या गोरखधंधा कुछ हैं सांवली , कुछ हैं सलोनी , रुप , दर्प की कुछ मतवाली किंतु , प्रिये इस अंतर्मन का कोमल कोना खाली-खाली कभी कभी तो मन