संदेश

अप्रैल, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मित्र ,हमारे संबंधों में ऐसे पल आये

चित्र
हाय,हैलो के बाद कहें क्या? समझ नही पाये मित्र ,हमारे संबंध ों में ऐसे पल आये कुशल-क्षेम ,हारी-मज़बूरी दर्द नहीं पूंछे जीवन-रस के पात्र हो गये असमय ही छूंछे अवसादी-घन उमड -घुमड मन आंगन पर छाये मित्र ,हमारे संबंधों में ऐसे पल आये घंटे,दिन,सप्ताह,महीने बरसों बीत गये आंखें नहीं ह्रदय भी अपने बिलकुल रीत गये स्वर,लय,गति,आवाज़ गये सब गीत कौन गाये? मित्र ,हमारे संबंधों में ऐसे पल आये बिला-वज़ह हम तुम रूठे थे कल की ही है बात दुःस्वप्न बन गयी ज़िंदगी जैसे काली रात कुछ तो करो उपाय कि फिर से सुप्रभात आये---। -----------------अरविंद पथिक

ओछे मंच नहीं

चित्र
हमको तो लिखना आता है दिखना रंच नहीं बस थोडा आशीष चाहिये ओछे मंच नहीं अपने निकम्मेपन पर हमको है पूरा विश्वास  सिर्फ भरोसा है ईश्वर का नहीं किसी से आस मेरी उनकी ठनी हुई है कोई पंच नहीं बस थोडा आशीष चाहिये ओछे मंच नहीं हमें तोडने को बौने हैं सारे एक हुये वही कुचलने हमें चले हैं जिनके चरण छूये मन आहत,स्तब्ध-मौन पर ईर्ष्या रंच नहीं बस थोडा आशीष चाहिये ओछे मंच नहीं लक्षागृहों में आग लगायी चक्रव्यूह तोडे षडयंत्री धाराओं के रूख बहुत बार मोडे आते हैं पर हमको रूचते तनिक प्रपंच नहीं बस थोडा आशीष चाहिये ओछे मंच नहीं -------------अरविंद पथिक

'सोशल मीडिया'सूचना और आत्मप्रचार का माध्यम है

चित्र
पिछले दिनो एक चैनल ने ' सोशल मीडिया ' की उपयोगिता और प्रासंगिकता पर बहस करायी और जैसा कि इन चैनलों की बहस में होता है कि कुछ लोग मुद्दे के पक्ष में और कुछ विपक्ष में सिर्फ इसलिये बोल रहे थे चूंकि चीखने से ही चैनल्स की बहस को शायद विचारोत्तेजक और टी आर पी गेनर माना जाने लगा है।बहस का निष्कर्ष भी जैसे पू्र्वनियोजित था कि कोई ऐसी व्यवस्था ज़रूर होनी चाहिये जो ' सोशल मीडिया ' के कंटेंट को नियंत्रित कर सके। मुझे लगता है कि जिस तरह से मीडिया के लोग कहते हैं कि आत्मनियंत्रण ही मीडिया ( इलेक्ट्रानिक और प्रिंट ) के लिये श्रेष्ठ है वही बात ' सोशल मीडिया ' पर भी लागू होती है पर क्या इतने उच्च स्तर की नैतिकता है समाज में जो सही अर्थों में ' आत्मनियंत्रण ' कर सके।बनिये ( वह बनिया अंबानी से लेकर दाउद और नौसिखिया बिलडर से लेकर रूपर्ट मर्डोक तक ) के पैसों ( विज्ञापन और पेड न्यूज ) से चलने वाला तथाकथित मुख्यधारा मीडिय

हिंदी फिल्मों में स्वास्थ्य हमेशा महत्वपूर्ण विषयवस्तु रहा है

चित्र
हिंदी फिल्मों ने अपने प्रारंभिक काल से ही मनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक कुरीतियों की भर्त्सना और सांस्कृतिक उन्नयन के प्रति अपनी निष्ठा प्रदर्शित की तो स्वास्थ्य जैसे जीवन को गहरे तक प्रभावित करने वाले विषयों को भि सेलूलाइड पर उतारने में कोताह ी नहीं बरती है।चाहें वह ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों का ज़माना हो या फिर रंगीन फिल्मों का हिंदी फिल्मों में स्वास्थ्य हमेशा महत्वपूर्ण विषयवस्तु रहा है।स्वास्थ्य से जुडे भावनात्मक और सामाजिक पक्ष को हिंदी फिल्मों मे पूरी गंभीरता से चित्रत किया जाता रहा है। इस क्रम मे १९७० मे रिलीज हुई 'खिलौना' एक उल्लेखनीय फिल्म है।फिल्म की मुख्य भूमिकाओं मे संजीव कुमार और मुमताज ने अपने अभिनय की जिन ऊंचाइयों को छुआ उसके लिये आज भी इस फिल्म की चर्चा की जाती है। फिल्म का कथानक विजयकमल (संजीव कुमार) जोकि ठाकुर सूरज सिंह (विपिन गुप्ता) का बेटा है,के इर्द-गिर्द घूमता है।विजयकमल अपनी प्रेमिका सपना की शादी बिहारी (शत्रुघन सिन्हा) के साथ होने और दीवाली की रात सपना के आत्महत्या कर लेने के कारण ,पागल हो जाता है। ठाकुर सूरज सिंह को विश्वास है कि शादी के बाद विजयकमल ठीक