संदेश

जून, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
धर्म अधर्म , नास्तिक-आस्तिक , आस्था -अनास्था आदि विषयों से मानव शायद तभी से टकराता रहा है जबसे उसने सामूहिक रूप से रहना शुरू किया।समाजशास्त्री और धर्माचार्यों ने बहुत विचार किया है इस पर।प्रकृति के विकराल , अद्भुत और अपराजेय शक्ति के  पीछे कोई न कोई सत्ता तो ज़रूर है , कोई तो है जो मेरी मदद करेगा इस अपराजेय सत्ता को पराजित करने में।शायद उसी सत्ता को मनुष्य ने ईश्वर नाम दिया और फिर वह ईश्वर मनुष्य से बडा और बडा होता चला गया।सनातन धर्म में तो ' यत धारयति स धर्मो"अर्थात धर्म जीवन शैली है ईश्वर को पाने की सीढी नही।धर्म जो जीवन जीने का ढंग था वह धीरे-धीरे जीवन पर छाता गया , जीवन को ही चलाने लगा धर्म मुख्य हो गया जीवन गौड।धर्म के लिये हजारों जीवनों की बलि चढाई जाने लगी।ये तो हुआ धर्म और आस्था के साथ और नास्तिक जिन्होने अपने को किसी सहारे से दूर रखा था जो सब कुछ स्वतः और प्राकृतिक ढंग से हुआ मानते थे वे कभी मार्क्स और माओ तो कभी भगतसिंह में सहारा ढूढने लगे।ये तो इतिहास के विद्यार्थी ही बता पायेंगे कि मारकाट आस्तिकों ने ज़्यादा मचायी या नास्तिकों ने।मजे की बात यह है कि दोनो ने ये क