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वर्ष २००६ में प्रकाशित मेरे महाकाव्य -'बिस्मिल चरित ' से -- पं० रामप्रसाद बिस्मिल की अंतिम यात्रा जंगल में आग फैलती ज्यों ,फैली बिस्मिल बलिदान खबर  जेल स्वयम ही कैद हुयी ,आहत हो दौड़ा पूरा नगर जिसने भी सुना ,रह गया सन्न,मन खिन्न, हृदय था भग्न हुआ अग्रेजी न्याय बेशर्मी से चौराहों पर ही नग्न हुआ सोया भारत बिलबिला उठा ,जनता चोंकी फिर क्रुद्ध हुयी सैलाब उमड़ आया हो ज्यों गोरखपुर की यह दशा हुयी कम से कम एक से सवा लाख लोगों ने जेल को घेरा था लाल हुयी आँखे सबकी गुस्से का गम का बसेरा था “तोड़ो इस जेल के फाटक को ,तोड़ो यह कारा गुलामी की झकझोरो ,झिन्झोड़ो सत्ता सत्ता को आदत यह छोडो सलामी की बिस्मिल के अंतिम दर्शन से वंचित न कही हम रह जाएँ आघात सहे हैं बहुतेरे अपमान और न सह जाये तोड़ो –तोड़ो ,जल्दी तोड़ो कारागृह की दीवारों को ही मारो-मारो कसकर मारो,अंग्रेजों को मक्कारों को घबराए जेल प्रशासन के फूल गये थे हाथ पैर शायद ही प्राण बचेंगे अब ईश्वर से मनाने लगे खैर हिम्मत कर पहुंचा छत ऊपर फिर हाथ जोड़ जेलर बोला ---- सौगंध आपको बिस्मिल की कह करके उसने मुंह खोला--- “जैसा भी आप बताएँगे वैसा करने को प्