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जनवरी, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

पतवारों का तूफानों से समझौता है

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पतवारों का तूफानों से समझौता है जयचंदों ने गोरी को भेजा न्योता है सारे रक्षक मस्त पडे बेसुध सोये हैं कर्णधार सब सुरा सुंदरी में खोये हैं कलमकार सत्ता के चारण बन ऐंठे हैं लोकतंत्र की शाखाओं पर उल्लू बैठे हैं केवल क्रिकेट ही है कहानी घर-घर की कुंठित-अवसादित है जवानी हर घर की देशभक्ति की बातें फिल्मी माल हुईं प्रतिभा हीन नग्नतायें वाचाल हुईं भारत का अस्तित्व मिटा जाता है इंडिया-शाइनिंग करता मुस्काता है आज नहीं गांधी , न जवाहरलाल यहां खोये प्यारे बाल-पाल औ लाल कहां नहीं गर्जना करते ,    प्यारे नेताजी करते हैं नेतृत्व फिल्म अभिनेता जी रोज आंकडे हमे   बताये जाते हैं सेंसेक्सी कुछ ग्राफ दिखाये जाते हैं बतलाते हैं अंतरिक्ष में पहुंच गये हैं हमने तिरछे नयन किसी के नहीं सहे हैं और न जाने कितनी ही ऐसी बातें मधुर चाशनी में लिपटी कटुतम घातें रोज़ यहां होती हैं समझते हम सब हैं देख रहे चुपचाप बोलते हम कब हैं ? खतरे की चर्चा करते हैं मित्रों से देशभक्ति दिखलाते हैं चित्रों से पर चर्चा के आगे बात नहीं बढती है कुछ करने की धुन सिरे नहीं चढती है क

आज शहीद दिवस है

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आज शहीद दिवस है राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का बलिदान दिवस।गांधीजी के अवदान को लेकर तमाम बातें की जा सकती हैं पर शांति ,अहिंसा और प्रेम का विरोध कौन कर सकता है।महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुये यही कहना चाहता हूंगांधीजी के आंदोलन का देश की आज़ादी में महत्वपूर्ण स्थान है पर आज़ादी के लिये तमाम कारक थे उनमें से एक नौसेना में विद्रोह जोकि सुभाष के क्रांतिकारी प्रयासों का परिणाम था।भाई इतिहास का थोडा निरपेक्ष रहकर अध्ययन करें तो पायेंगे कि आज़ादी का संघर्ष १८५७ से शूरू होकर फिर थमा नहीं प्रथम लाहौर षडयंत्र केस,काकोरी केस-एच आर ए का योगदान,भगतसिंह एवं साथियों का बलिदान -एच एस आर ए का योगदान ,१९४२ का छात्रों द्वारा चलाया गया आंदोलन और फिर अंतिम कील नेताजी सुभाष के संघर्ष से प्रेरित नौसेनिक विद्रोह आज़ादी प्रदान करने की दिशा मे महत्वपूर्ण कदम रहे।गांधीजी की हैसियत पर सवाल उठाने की हैसियत पाने में हमे कई जन्म लगेंगे पर इतिहास के प्रति द्रष्टि एकांगी नहीं होनी चाहिये।

रबड की रीढ वाले लोग

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मित्रों ३-४ दिन पूर्व श्री मदनलाल वर्मा क्रांत जी  ने मुझे २९ जनवरी को  आयोजित होने वाले कवि-सम्मेलन में काव्यपाठ का आमंत्रण दिया।आज जब मैने क्रांत जी से पूंछा  नोएडा में कहां पहुंचना है तो उन्होनें बताया कि मेरे कुछ भूमिगत मित्रों ने उन्हें मेरे दिल्ली से बाहर होने की सूचना देकर स्वयं को उस कार्यक्रम में सम्मिलित करा लिया है पहले थोडा झटका लगा फिर खुशी भी हुई कि मेरा नाम कवि-सम्मेलन की लिस्ट से कटवाने के लिये भाई लोग षडयंत्र करके मेरी शख्सियत को रेखांकित तो कर ही रहे हैं।मैं उन सब का आभार व्यक्त करता हूं और अपने काव्यसंग्रह 'अक्षांश अनुभूतियों के' से एक रचना उन्हें समर्पित कर रहा हूं--- रबड की रीढ वाले लोग बढते जा रहे हैं स्वाभिमानी सहमे हैं घबरा रहे हैं बज रहा जो योग्यता का ढोल उसकी पोल में क्या है? समझते है आकाश का ठेका बाज़ों ने लिया है परिंदो को कहां उडना है वे बतला रहे हैं रबड की रीढ वाले लोग बढते जा रहे हैं तुम्हारी चाल कैसी ? ढाल कैसी ढंग कैसा? तुम्हारे रूप यौवन पर फबेगा रंग कैसा? ना जिनके मूल्य कोई वे हमें सिखला रहे हैं रबड की रीढ वाले लोग बढते जा रहे हैं गीत गायें य

गणतंत्र का मत बहिष्कार करिये,

मित्रों कई वर्ष पूर्व जब सैयद शहाबुद्दीन ने गणतंत्र के बहिष्कार की बात कही थी तब एक मु्तक कहा था जिसे अमर उजाला,दैनिक जागरण और दैनिक आज ने शीर्षक बनाया था ।६३वें गणतंत्र दिवस पर वह मुक्तक आपको सौंप रहा हूं--- भावनाओं का अपनी परिष्कार करिये नहीं राष्ट्र का यों तिरस्कार करिये इसी देश में बंधु रहना तुम्हें है गणतंत्र का मत बहिष्कार करिये,        -अरविंद पथिक

भीड

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भीड अस्पताल हो या रेलवे रिजर्वेशन  का काउंटर हर तरफ भीड ही भीड है भीड की आंखों में है बेरोज़गारी , कुंठा , लाचारी इलेक्शन का दौर है हर तरफ बज रहा है राग दरबारी पार्टियों के घोषणा पत्र और मुखपत्र कर रहे हैं सरकार के कर्मों एवं दुष्कर्मों का गान सभी कर रहे हैं भीड को सावधान भीड के सभी हैं शुभचिंतक भीड का ही है सम्मान लोकतंत्र के ठेकेदारों की प्राणवायु है भीड भीड ही भगवान है फिर भी कोई बनना नहीं चाहता भीड का हिस्सा भीड से अलग दिखने के लिये ही सब भीड जुटाते हैं भीड के आगे रोते हैं , नाचते हैं , गाते हैं हर मुमकिन तरीके से भीड को रिझाते हैं भीड को अपने तरीके से चलाना चाहते हैं पर , अब भीड भी अपना मूल्य जान गयी अपने ठेकेदारों की नीयत पहचानती है वह उनके इशारों पर ताली तो बजाती है पर किसी भी सभा में मुफ्त नहीं आती है भीड को पता है कि यही मौसम है बैंकों के लाकर खुलने का काली कमाई से कुछ मिलने का इसके सहारे कट जायेगा महीना , दस दिन फिर वही गलीज़ ज़िंदगी पैर में चुभती रहेगी बेरोज़गारी और अभाव की पिन चार दिन की चांदनी के बाद

द्वारिका में आयोजित कवि सम्मेलन का संचालन करते हुये मध्य में अरविंद पथिक

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     बायें से दायें--श्री बी०एल० गौड,सुरेश नीरव ,अरविंद पथिक एवं भगवानसिं हंस         पीछे से झांकते हुये संयोजक हीरालाल पांडे

ताउम्र उसको इस वज़ह से झिडकियां मिलती रहीं

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पुरानी गज़ल के दो-तीन शेर आपकी अदालत मे पेश कर रहा हूं----                          मां , बेटी , बहू           बन उम्र भर फिरती रहीं फर्ज़ के कोल्हू में केवल लडकियां पिरती रहीं  नेक था , मासूम था       और था सचमुच ज़हीन ताउम्र उसको इस वज़ह से झिडकियां मिलती रहीं इक झलक दिखला के जाने फिर कहां वो खो गया किंतु पहरो-पहर दिल की खिडकियां हिलती रहीं   

नेताजी सुभाषचंद्र बोस की नज़रबंदी से फरारी की रोमांचक अंतर्कथा

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मित्रों कल २३ जनवरी है नेताजी सुभाषचंद्र बोस का जन्म दिवस।तमाम गांधीवादी आंदोलनों और क्रांतिकारी बलिदानों के पश्चात नौसेनिक विद्रोह ही वह अंतिम प्रहार था जिसने अंग्रेजों को बोरिया-बिस्तर समेटने के लिये बाध्य किया।नेताजी कलकत्ता के अपने मकान से फरार होकर विदेश पहुंच जाना कोई परीकथा नहीं अपितु उनकी संगठन क्षमता और दृढ निश्चय का प्रतीक था जिसने लाखों भारतीयों को प्रेरित किया।उनके जन्मदिवस की पूर्व संध्या पर इतिहास की गर्द को झाडने का मेरा यह तुच्छ प्रयास एक विनम्र श्रद्धांजली है-----नेताजी सुभाषचंद्र बोस के बहुआयामी व्यक्तित्व का सर्वाधिक रोमांवकारी पक्ष है उनका रहस्यमय ढंग से एक देश से दूसरे देश में पहुंच जाना।चाहें वह कलकत्ता में नज़रबंदी से फरार होकर ज़र्मनी पहुंचना हो या फिर द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका के बीच ज़र्मनी से ज़ापान पहुंचना।आइये आज उनके कलकत्ता से ज़र्नी पहुंचने के रहस्य से पर्दा उठाते हैं------ नेताज़ी ' हालवेल मान्यूमेंट ' तोडने के आरोप में अपने ही घर में नज़रबंद थे , उनके  मनो-मस्तिष्क पर डा०चंपक रमन पिल्लई और विनायक दामोदर सावरकर विचार छाये हुये च

sahity academy

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साहित्य अकादेमी में मेरे झरोखे से कार्यक्रम

बेंचता हूं पाव-भाजी पेस्ट्री पैटीज़

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मित्रों कुछ वर्ष पूर्व मैने एक बेकरी पदार्थों की दुकान खोली वह भी पूरी शान के साथ।दुकान चलाने लायक टेंपरामेंट ना तब था ना अब है सो लुट-पिट कर बैठ गये ।उन दिनों लिखी गई एक कविता आज हाथ लग गई तो सोचा आप को ही सुना दूं , लीजिये झेलने के लिये तैयार हो जाइये------ बेंचता हूं पाव-भाजी     पेस्ट्री पैटीज़ ज़िंदगी अपनी हुई है बटर -बर्गर चीज़ मै नहीं मक्खन लगाता बेंचता हूं कौन है जिसको नहीं मैं खैंचता हूं ? दोस्त-दुश्मन , गैर-अपने , उठते अक्सर खीझ बेंचता हूं पाव-भाजी     पेस्ट्री पैटीज़ सुना था कुछ साल पहले , बेचते थे ' अश्क ' फिर नहीं क्यों करूं मैं पेशे पे अपने रश्क ' स्टार ' खुद को बेचने जाते हैं ' ओवरसीज ' बेंचता हूं पाव-भाजी     पेस्ट्री पैटीज़ मंच पर घूमा- फिरा , देखा-सुना , जाना चाहा खुद को बेंच दूं पर , मन नहीं माना चुटकुले उपहास करते , रहता मुट्ठी मीज बेंचता हूं पाव-भाजी     पेस्ट्री पैटीज़ शब्द से ही झूठ का चलता है कारबार शब्द बनकर रह गये हैं झूठ का हथियार सोंचिये क्यों अग्निधर्मा स्वर रहे हैं छीज

अमन की बात करते हैं मगर कायर नहीं हैं हम

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  कलम की बात करते है   वतन कि बात करते हैं हम अब भी गुलिस्तां की चमन की बात करते है रंज़ - ओ - गम है मगर हमने अभी आपा नहीं खोया इस दौर - ए - दहशत में भी   हम अमन की बात करते हैं अमन की बात करते हैं मगर कायर नहीं हैं हम सूखे नहीं आंसू ---,   आंखे अभी हैं न   रोटी नहीं देते   मगर बंदूक देते मुस्तकबल - ए - औलाद   को खुद फूंक देते       अगर लडने की हसरत है   तो लड ले सामने आकर       कुछ ना पा सके पीठ पर यों      आज़मा कर तेरे पाले हुये कुत्त    ये अलकायदा - लश्कर पागल हो चुके है    अब झिझोंडेंगे तुझे कसकर संभल सकता है तो अब भ   संभल जा आंख के अंधे नफरतों का बोझ        ना पायेंगे कंधे पापों का घडा तेरे       यकायक फूट जायेगा हमारे देखते ही देखते     तू टूट जायेगा।

हर समय यदि हम तुम्हारे पास ही बैठे रहेंगे

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हर समय यदि हम तुम्हारे       पास ही बैठे रहेंगे सोंच लो ये दुनियावाले क्या न फिर हमको कहेंगे  ? दो - चार दिन में ही हमारी हो चलेगी जगहंसाई फिर कहोगे बात क्यों पहले नहीं हमने     बताई  ? नज़रें चुराकर सारे जग के व्यंग्य वाणों को सहेंगे ग्यात है ,  ये मान - धन यों ही सहज     मिलता नहीं है बिना उद्यम के कभी    तिनका तलक हिलता नहीं है अपने पथ मे तो सदा कंटक रहे  ,   कंटक रहेंगे हर समय यदि हम तुम्हारे       पास ही बैठे रहेंगे प्राण़़ तुमसे दूर        जाना हमें भी रूचता नहीं है मिलन के ये पल गंवाना तनिक भी जंचता नहीं है पर ,  घनेरी  -      केश राशी       के तले बैठे रहेंगे सोंच लो ये दुनियावाले क्या न फिर हमको कहेंगे  ? यों तो हमने इस जगत की कभी परवा नहीं की किस तरह से जियें , बतलाने की अनुमति नहीं दी पर , तुम्हारी नज़र नीची देख हम रह ना सकेंगे सोंच लो ये दुनियावाले क्या न फिर हमको कहेंगे  ? एडजस्ट करना , सेट करना हमको कभी आया    नहीं हम वहीं निश्चल रहे ,  मन ने कहा जिसको सही और तुम मनमीत को गुडबाय हम कह ना सकेंगे सोंच लो ये दुनि