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फ़रवरी, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
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भूल सुधार करते हुये 'बिस्मिल चरित'का एक अंश श्रद्धांजलि स्वरूप भेंट कर रहा हूं-----

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मित्रों २७ फरवरी को मेरे छोटे बेटे का जन्मदिन था।इसके अतिरिक्त मेरे कार्यालय की दलित शक्तियां कुचक्रों में लिप्त हैं।उनसे संघर्ष रत मैं अमरशहीद चंद्रशेखर आज़ाद के बलिदान दिवस को भूल ही गया था।अपनी भूल सुधार करते हुये ' बिस्मिल चरित ' का एक अंश श्रद्धांजलि स्वरूप भेंट कर रहा हूं-----      काकोरी एक्शन योजना द्वारिकापुर की घटना ने , क्रांति कर्म दुर्घटना ने घाव किये मन पर भारी , पर , बिस्मिल थे आभारी छूट गये थे कलुषित कर्म , किंतु हवा थी बेहद गर्म साधन कहां से लायेंगे ? दल को कैसे चलायेंगे आया तभी उन्हें संदेश ,' साथी ' बन सकता है , विदेश ज़र्मन पिस्तौलें बंदूक , और बमों के कुछ संदूक ले ज़हाज़ है रस्ते में , मिल सकते हैं सस्ते में कुछ भी करो दंद या फंद , मुद्रा का पर करो प्रबंध पाना खेप ज़रूरी है , पैसों की मज़बूरी है ' सेंट्रल-वर्किंग-कमेटी ' में , एच०आर०ए० की मीटिंग में वाद-विवाद लगा होने , परिसंवाद लगा होने धन को कैसे जुटायें हम , अस्त्र किस तरह पायें हम सबसे पूछा कैसे हो ? ऐसे हो या वैसे हो धन तो हमें जुटाना है , हथियारों  क

muktk

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किसी बिगडैल नाजनीन की चाहत नहीं हैं ,हम   जिंदगी को आपकी इनायत नहीं हैं , हम तप करके वक्त की भट्टी में निखरे हैं जिंदा हैं ,इन्कलाब हैं ,रिवायत नहीं हैं ,हम ऐसा नहीं किसी को चाहा नहीं कभी ऐसा नहीं किसी ने चाहा नहीं कभी कमजर्फ नहीं हम बाज़र्फ़ लोग हैं सो चाहतों का ढोल बजाय नहीं कभी  — with  Lata Dixit .

यों तो बिना वज़ह ही सारे दिन हम व्यस्त रहे

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यों तो बिना वज़ह ही सारे दिन हम व्यस्त रहे यों तो बिना वज़ह ही सारे दिन हम व्यस्त रहे महानगर के छल-छंदों से तन-मन त्रस्त रहे संघर्षों के ढेर से हमने   सुख के पल बीने किंतु , किन्हीं हंसते नैनों से स्वप्न नहीं छीने यों तो हम मधुमासी रातों में संत्रस्त रहे माना बिना वज़ह ही सारे दिन हम व्यस्त रहे चाटुकारिता के कांधे     चढ बौने ऐंठ गये लेकिन ऐेसा नहीं कि कुंठित हो हम बैठ गये शनैःशनैः ही सही मगर हम गति अभ्यस्त रहे यों तो बिना वज़ह ही सारे दिन हम व्यस्त रहे अगर सामने पड ही गये तो झुक-झुक नमन किये ऐसे मित्रों ने ही अक्सर भीषण ज़खम दिये हंसकर दर्द सहे सहकर हम खुद में मस्त रहे यों तो बिना वज़ह ही सारे दिन हम व्यस्त रहे औरों को क्या कहें ? तुम्हारे लिये भी हम बोझा मन में जगह नहीं दी लेकिन अखबारों में खोजा सच तो यह है तुम भी हमको करते पस्त रहे महानगर के छल-छंदों से तन-मन त्रस्त रहे जीवन जैसा मिला हमें , हमने हंसकर स्वीकारा कई खोखले वट वृक्षों को हमने   दिया सहारा ज्यों ही मौका लगा उन्होने कर में शस्त्र गहे महानगर के छल-छंदों से तन-मन

छायावादी या उन्मादी नाप-तोल कर नहीं लिखे हैं

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छायावादी या उन्मादी नाप-तोल कर नहीं लिखे हैं मेरी तरह मेरे  अक्षर भी जैसे हैं वैसे ही दिखे हैं         छप जाऊं स्वर्णिम पृष्ठों में         या शिखरों से गाया जाऊं         पद्म श्री कहलाने वालों की         पंगत में पाया जाऊं विस्तृत-जीवन नभ में ऐसे यश के बादल नहीं दिखे हैं छायावादी या   उन्मादी  नाप-तोल कर नहीं लिखे हैं          दिल्ली की सडकों सा जीवन           दूषित और ज़ाम रहता है          यदा-कदा होता विशिष्ट यह           वैसे तो ये आम रहता है चकमा देकर आगे निकलने वाले पैंतर नहीं सिखे हैं छायावादी या   उन्मादी  नाप-तोल कर नहीं लिखे हैं        सोचा चाहा कोशिश भी की       महानगर पर रास न आया      क्या ना पा सकता था ? लेकिन         इन हाथों में कुछ ना आया किंचित है अफसोस , मगर संतोष भी है , हम नहीं बिके हैं मेरी तरह मेरे  अक्षर भी      जैसे हैं वैसे ही दिखे हैं       देने वालों को क्यों कोसूं ?       मै ही शायद पात्र नहीं था      जिसको स्वर्ण पदक बंटने थे       उस कक्षा का छात्र नहीं था सबको थी आपत्ति कि उत्तर शीश झुकाकर नहीं

आप भी अपने अनुभवों से अवगत कराएँ

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  मित्रों आज अपने वैवाहिक जीवन के बारह बरस पूरे करने के अवसर पर अपने अनुभव बाट रहा हूँ ,आप भी अपने अनुभवों से अवगत कराएँ -- बारह बरस में बदल जाते हैं  , दिन   घूरे के बारह बरस में हो जाते पति यार  जमूरे से  बारह बरस जीवन होता है , यारों कुत्ते का बारह बरस में हो जाता पति कुकुरमुत्ते सा बारह बरस स्कुल  में काट के  मिल जाता कालेज़ बारह बरस के  बच्चे हासिल कर   लेते 'नालेज़' बारह बरस में  चंद्रमुखी बन जाती है ज्वाला  बारह बरस का   दाम्पत्य कर देता है' लाला ' बारह बरस में सीधा सच्चा बन जाता है    घाघ बारह बरस  में लगे जंवाई ससुर को काला नाग बारह बरस में कटरीना भी  टुनटुन बन  जाती है  बारह बरस में अरमानो की धूनी    सज जाती है  बारह  बरस में माशूका के बच्चे मामा  कहते  बारह बरस के बाद ज़ुल्म सब हंसकर  हैं सहते बारह बरस हो गए पथिक जी अब मत हुक्म चलाओ  बारह बरस हो चुके,    मौन हो अपनी खैर मनाओ  अभी तो पौ  है बारह, जाने कब बारह बज जायें यह तो तय है बारह बरस  ये लौट कभी न आयें   

दिवाकर माडल स्कूल में गज़ेसिंह त्यागी जी ने श्री बी०एल० गौड ,पं० सुरेश नीरव के साथ मुझे यह सम्मान प्रदान किया

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दिवाकर माडल स्कूल में गज़ेसिंह त्यागी जी ने श्री बी०एल० गौड ,पं० सुरेश नीरव के साथ मुझे यह सम्मान प्रदान किया मित्रों कभी कभी उम्र बताना भी फायदे का सौदा राहता है ,जब से हमने ४० का हो जाने का ऐलान किया है मित्रों ने मुख्य अतिथि या विशिष्ट बनाना शुरू कर दिया।कल दिवाकर माडल स्कूल में गज़ेसिंह त्यागी जी ने श्री बी०एल० गौड ,पं० सुरेश नीरव के साथ मुझे यह सम्मान प्रदान किया था।यों तो गत वर्ष वे यह सम्मान गत वर्ष भी दिया था पर पिछले वर्ष पं० सुरेश नीरव ,मैं अरविंद पथिक तथा अत्यंत सात्विक समाजसेवी धर्मपाल यादव इस आयोजन में शामिल थे ।इस वर्ष धर्मपाल जी के रिप्लेसमेंट के रूप में   कवि श्री बी०एल० गौड थे।  भाई नागेश पांडे को जैसे ही पता लगा कि हम ४० के हो गये हैं तो उन्होनें अपने महाविद्यालय में आमंत्रित कर लिया।ग्वालियर के भाई अमित चितवन का भी ऐसा ही इरादा था वो तो दोनो ही मित्रों ने २५ फरवरी की तिथि तय कर रखी थी और भाई नागेश को स्वीकृति दे देने के कारण अमित जी से क्षमा मागनी पडी। जिस तरह से मित्रों ने मेंरे चालीसवें का स्वागत किया है उससे लगता है कि भाई राजमणि जी भी इस बार

जय लोक मंगल: दिवाकर माडल स्कूल में गज़ेसिंह त्यागी जी ने श्री ब...

जय लोक मंगल: दिवाकर माडल स्कूल में गज़ेसिंह त्यागी जी ने श्री ब... : मित्रों कभी कभी उम्र बताना भी फायदे का सौदा राहता है ,जब से हमने ४० का हो जाने का ऐलान किया है मित्रों ने मुख्य अतिथि या...

suresh neerav kavypath karte huai

बौनों के शहर में

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मित्रों यह कविता तब लिखी गयी थी जब मैं बीस का होता था।मेरे प्रथम काव्यसंग्रह ' मैं अंगार लिखता हूं ' कि यह कविता मुझे आज भी पहले से कहीं ज़्यादा प्रासंगिक लगती ।आपकी क्या राय है  बताइयेगा ---------- --- बौनों के शहर में एक दिन पहुंच गया मैं बौनों के शहर में बौनों का समूह मुझे देखकर ऊपर से हंसा अंदर से घबराया आप यकीन मानिये उस दिन ज़िंदगी में पहली बार मुझे अपने ऊंचे कद पर बहुत रोना आया सचमुच , मैं मन ही मन बहुत शरमाया--------- मुझे लगा बौना होने में ही जीवन की सार्थकता है क्योंकि , यदि आप ऊंचे हैं तो आसमान को छुने की कोशिश करेंगे असफल होने पर झूंझलायेंगे झल्लायेंगे और आसमान की ऊंचाई के आगे जब खुद को बौनों पायेंगे तो फिर कहां जायेंगे ? किस ज़मात में शामिल होंगे ? बौने से तो आप भागेंगे या फिर वे आपको भगा देंगे अपनी ज़मात में तो वे आपको किसी कीमत पर नहीं लेंगे तब क्या करेंगे आप ? बिना ज़मात के आपको घास कौन डालेगा ? लोकतंत्र है हमारे देश में और यह तंत्र उनका ही साथ देता है जिनके साथ लोक होता है , ज़मात होती है बौनों के इस शहर मे
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कल दिनांक ११ फरवरी को जीवन के ४० बसंत पूरे करने के उपलक्ष में मैने एक काव्यसंध्या का आयोजन किया था जिसमें मेरे आत्मीय मित्रों ने पधार कर कृतार्थ किया।मैं उन सभी का ह्रदय की गहराइयों से आभार व्यक्त करता हूं।पेश हैं उन अंतरंग काव्यात्मक पलों की कुछ झलकियां---

लो पथिक जी हो गये हो आप भी चालीस के

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मित्रों आज आपका नाचीज़ अरविंद पथिक चालीस बरस का हो गया।कुछ मित्रों को याद था उनकी शुभकामनायें मिल गयीं जिन्हें याद नहीं वे जानने के बाद कुछ मुखर तो कुछ नीरव बधाई देंगे ही।चुनिंदा मित्रों ने मेरे इस छोटे से घर पर पत्तल जूठी करने और काव्यात्मक आशीष देना स्वीकार किया है , उनका सब का आभार , आज एक कविता में आत्मालाप किया है सो आपके समक्ष रक रहा हूं , काव्यात्मक सौंदर्य को ढूढने वालो को कुछ हासिल हो पायेगा  इसमें संदेह है केवल आत्म निरीक्षण और आत्मालाप मान कर ग्रहण करें--- लो पथिक जी हो गये हो आप भी चालीस के ढीली कर लो त्योरियां ,  अब नही हो बीस के कब गया बचपन ना जाना , जाने को है अब ज़वानी अब नहीं बाकी वो लहज़ा ना ही अब है वह रवानी श्वेत कुछ-कुछ हो चले हैं , केश अब तो शीश के लो पथिक जी हो गये हो आप भी चालीस के पीछे मुडकर देखिये तो ज़्यादा कुछ पाया नही है इतने सालों को गंवाकर हाथ कुछ आया नहीं है होम करते हाथ   कितनी बार ही तुमने जलाये अनामंत्रित अपयशो के काफिले अनगिनत आये याद करिये उन दिनों को आप जब थे बीस के लो पथिक जी हो गये हो  आप भी चालीस के गांव