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जुलाई, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

यों तो बिना वजह ही सारे दिन हम व्यस्त रहे

यों तो बिना वजह ही सारे दिन हम व्यस्त रहे महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे संघर्षों के ढेर से हमने सुख के पल बीने किंतु कभी हंसते नयनों से स्वप्न नहीं छीने यों तो हम मधुमासी रातों मे संत्रस्त रहे महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे चाटुकारिता के कांधे चढ बौने ऐंठ गये लेकिन ऐसा नही कि कुंठित हो हम बैठ गये शनैः शनैः ही सही मगर हम गति अभ्यस्त रहे यों तो बिना वजह ही सारे दिन हम व्यस्त रहे अगर सामने कभी पड गये झुक झुक नमन किये ऐसे मित्रों ने पीछे से भीषण ज़खम दिए हंसकर दर्द सहे सहकर हम खुद मे मस्त रहे महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे औरों को क्या कहें तुम्हारे लिए भी हम बोझा मन मे जगह नही दी लेकिन अखबारों मे खोजा सच तो यह है तुम भी हमको करते पस्त रहे महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे जीवन जैसा मिला हमे हमने हंसकर स्वीकारा कई खोखले वट वृक्षों को हमने दिया सहारा ज्यों ही मौका लगा उन्होने कर मे शस्त्र गहे महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे उम्मीद है आपको कविता पसंद

महानगर के छलछंदों से तनमन त्रस्त रहे

महानगर के छलछंदों से तनमन त्रस्त रहे यों तो बिना वजह ही सारे दिन हम व्यस्त रहे औरों को क्या कहें तुम्हारे लिए भी हम बोझा मन मे जगह नही दी लेकिन अखवारों मे खोजा सच तो यह तुम भी हमको करते पस्त रहे