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नवंबर, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

आत्म-परिचय

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११फरवरी १९७२ को ग्राम बडागांव जनपद शाहजहांपुर उ०प्र० मे जन्म। पिता श्री चंद्रमोहन अग्निहोत्री प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक . प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा बडागांव,पुवायां तथा शाहजहांपुर में हुई।१९९४ में दिल्ली नगर निगम की सेवा में अध्यापक के पद पर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली आ गया। रुहेलखंड विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर करने के पश्चात,चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय मेरठ वाणिज्य में भी स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। बचपन से ही पं०रामप्रसाद बिस्मिल,अशफाक उल्ला खां तथा ठाकुर रोशनसिंह के बारे में सुन-सुनकर राष्ट्रीयभावना का संचार होता गया ।हिंदी काव्यमंचों की ओजस्वी परंपरा का लोकप्रिय कवि. प्रकाशन----- प्रथम रचना एक बाल कहानी थी जो कानपुर से प्रकाशित होने वाली एक पत्रिका मे प्रकाशित हुई थी। प्रथम काव्यसंग्रह----मैं अंगार लिखता हूं(हिंदी अकादमी,दिल्ली) के सहयोग से वर्ष १९९८ में पांडुलिपि प्रकाशन,नईदिल्ली द्वाराप्रकाशित),विमोचन सुप्रसिद्ध साहित्यकार राजेंद्र अवस्थी,रामशरण गौड द्वारा। दूसरी कृति के रूप---- अक्षांश अनुभूतियों के(गीत संग्

याद आ गया आज तुम्हारा पीला चेहरा

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मित्रों आज बडे दिनों के बाद एक गीत हुआ।बाहर वाले गीत सुनकर कहीं ---आंख दबाकर ना मुस्कुराये अतः पहले आपकी अदालत मे पेश कर रहा हूं,मुझे थोडा सा भी प्यार -दुलार करते हैं तो कैसा बन पडा है ये गीत बतायें ज़रूर,बतायेंगे ना---- याद आ गया आज तुम्हारा पीला चेहरा याद आ गया आज तुम्हारा पीला चेहरा आंखों की शबनम से थोडा गीला चेहरा चेहरा मानो   चेहरे के ऊपर चेहरा था याद आ गया हमको वह शर्मीला चेहरा चेहरे पर चेहरे चिपकाना सीख लिया रोते-रोते हंसना-गाना     सीख लिया गुणा-भाग ना आता था , ना आया हमको तुमने कब से गणित लगाना सीख लिया ? उलझन मे हूं देख तेरा मैं नीला चेहरा याद आ गया आज तुम्हारा पीला चेहरा चेहरा जिसको देख सांस थम जाती थी चेहरा जिसके लिये नींद ना आती थी खुली आंख से बंद पलक तक रहता था जिसका हर एक ज़ुल्म खुशी से सहता था आया याद वही हमको रंगीला चेहरा आंखों की शबनम से थोडा गीला चेहरा उस चेहरे को देखे बरसों बीत गये सबका सूनापन भरने में रीत गये कभी नही माना था हमने आज मगर लगता है दुनिया वाले हमसे जीत गये कहीं गुम गया जबसे वह गर्

राज़नीति के इन शिखंडियों को सद्बुद्धि प्रदान करे

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नेताओं ने बेशर्मी और जनता  मूर्ख समझने के नित नये कीर्तिमान बनाना ज़ारी रखा है।इसी कडी मे शरद पवार के गाल पर पडे थप्पड को प्रचार का हथकंडा कहना भी शामिल है।ऐेसा कहकर ये नेता एक तरफ तो जनता के आक्रोश को कम आंक रहे हैं वहीं दूसरी ओर आम आदमी की समझ पर भि सवालिया निशान लगा रहे हैं।पिछली घटनाओ से सबक ना लेकर आम आदमी की हताशा को केवल प्रचार का हथकंडा कह ये मूर्ख लोग आम आदमी को कुछ ज़यादा भयंकर कांड करने के लिये उकसा रहे हैं। मै निज़ी रूप से उस युवक को शरद पवार समेत संपूर्ण घटिया राज़नीति को तमाचा मारने के लिये बधाई देता हूं और ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि राज़नीति के इन शिखंडियों को सद्बुद्धि प्रदान करे।

अरविंद पथिक: शांति दूत

अरविंद पथिक: शांति दूत : तेरे कर्मो के कुछ छींटे हम पर भी पडेंगे ही मज़हबी ज़ुनूं में अंधे यहां पर भी लडेंगे ही ये दौर-ए-एटम है कुछ भी बच ना पायेगा नस्लें खत्म ...

शांति दूत

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तेरे कर्मो के कुछ छींटे हम पर भी पडेंगे ही मज़हबी ज़ुनूं में अंधे यहां पर भी लडेंगे ही ये दौर-ए-एटम है कुछ भी बच ना पायेगा नस्लें खत्म हो जायेंगी इंसा छटपटायेगा टाल सकता है तो अब भी टाल दे होनी ना करे ईश्वर कहीं घट जाये अनहोनी हमें भी रंज़ होगा क्योंकि तू हिस्सा हमारा है हज़ारों साल से तो एक ही किस्सा हमारा है बंटी धरती बंटी नदियां बंटे दिल भी हमारे हैं मगर अब क्या करें ज़ब एक ही पुरखे हमारे हैं लिखते-सोचते ये सब कलम भी कांप जाती है मज़हबी सोच आखिर में क्या-क्या गुल खिलाती है? तेरे पापों का कुछ बोझा हम भी हम भी तो उठायेंगे ज़डों को नष्ट होते देख हम भी तिलमिलायेंगे नफरतों के दाग यहां पर भी पडेंगे ही मज़हबी ज़ुनूं मे अंधे यहां पर भी लडेंगे ही मगर फौलाद हैं हम ज़ुल्म यह भी झेल जायेंगे                                                                    इंसानियत के लिये ज़ां पर खेल ज़ायेंगे क्योंकि धोखे ज़ुल्म दहशत से हम परहेज़ करते हैं हम तो युद्ध में ही नेज़े अपने तेज़ करते हैं विषैले तीर हाथों से बढकर तोड देते हैं सीने अडा देते हैं तोपें मोड देते हैं अतः अब बंद कर
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ऐसी ठोंक-ठाक में कुछ भी बुरा नहीं ठीक हम कर रहे हैं , ठीक से हम कर रहे हैं मित्र ,     यह बात भी ठीक से पता नहीं ठीक-ठाक रहे तो ,      करते रहेंगे हम- ठीक ना रहने में अपनी खता नहीं सब कुछ ठीक हो जाय चाहने से क्या ? मात्र चाहने से ठीक कभी कुछ हुआ नहीं जरूरी है ठोंक-ठाक ठीक-ठाक रखने को     ऐसी ठोंक-ठाक में कुछ भी बुरा नहीं

भविष्यवाणी

अगर लडने की हसरत है तो लड ले सामने आकर       कुछ ना पा सकेगा पीठ पर यों ज़ोर आज़मा कर तेरे पाले हुये कुत्ते ये अलकायदा-लश्कर पागल हो चुके हैं अब झिझोंडेंगे तुझे कसकर संभल सकता है तो अब भी संभल जा आंख के अंधे नफरतों का बोझ सह ना पायेंगे कंधेप पापों का घडा तेरे यकायक फूट जायेगा हमारे देखते ही देखते तू टूट जायेगा।

अरविंद पथिक: कवि सम्मेलन का आयोजन

अरविंद पथिक: कवि सम्मेलन का आयोजन : कल इंडियन आयल कारपोरेशन नई दिल्ली ने एक अंतर्विभागीय कवि सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें निर्णायक के रूप में पं०सुरेश नीरव,महेंद्र अज़नवी तथ...

कवि सम्मेलन का आयोजन

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कल इंडियन आयल कारपोरेशन  नई दिल्ली ने एक अंतर्विभागीय कवि सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें निर्णायक के रूप में पं०सुरेश नीरव,महेंद्र अज़नवी तथा अरविंद पथिक अर्थात मुझे भी आमंत्रित किया गया। लगभग ४० कवियों के काव्य पाठ के उपरांत महेंद्र अज़नवी ने ठीकठाक और पं०सुरेश नीरव ने शानदार काव्य पाठ किया।संयोजक टंडन जी के अनुसार अरविंद पथिक का काव्यपाठ जानदार रहा। कुछ कवियों ने वीर रस की व कुछ ने हास्यरस के स्वनामधन्य कवियों की रचनाओं का पाठ कर साहित्य की चौर्य-परंपरा का भी बखूबी निर्वहन किया तो कुछ करगिल का उच्चारण कारगिल तथा कश्मीर का काश्मीर उच्चारण कर मंच के अनपढ और मूर्ख कवियों की परंपरा का भी निर्वहन कर रहे थे।अपने काव्यपाठ से पूर्व मैने जब इस तथ्य की ओर ध्यान खींचा तो सभी ने सहमति से सिर हिलाया मानो उन्होने ने सर्वसम्मति से मुझे ही इस काम की सुपारी  दे रखी थी।एक कवि ने तो रश्मि रथी में वर्णित कृष्ण के विराट रूप का ही अपनी कविता मे कुछ इस मुद्रा में वर्णन किया मानो दिनकर जी उसकी कविता चोरी कर ले गये हों।कुल मिलाकर कार्यक्रम सफल रहा।च

जब भी गले मिलते हैं खंज़र भोंक देता है

लडे जो ज़ुल्म से,अन्याय से वह वीर होता है चले आगे ,दिखाये राह वह ही पीर होता है पर ये कौन सी है राह जिसको तू दिखाता है भूखों को गरीबो को तू ये क्या सिखाता है ? ज़हर भरकर दिमागों मे जिन्हे हैवान कर डाला अपनी साज़िशों की छांव मे हरदम जिन्हे पाला लावारिस सड रही लाशें  उनकी मुंह चिढाती हैं कदम बरवादियों की ओर कौमें यों बढाती हैं ये शैतानियत की सोच तुझको खाक के देगी नफरतों की आग तुझको राख कर देगी हम भाई समझते हैं-तू दुश्मन समझता है हमारी नेकनीयती को तू उलझन समझता है जब भी गले मिलते हैं खंज़र भोंक देता है लाहौर वाली बस को करगिल रोक देता है---------------------

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सिर्फ सात फेरे

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 सात फेरे औरत को कितना बांध देते हैं  यहएक औरत ही जानती है ताज़्ज़ुब तो यह है कि वह  इस बंधन को बंधन नहीं मानती है और वह भी जो कभी इन फेरों में चल रहा था कभी आगे तो कभी साथ-साथ फेरों के फेर को जाने कब  और कैसे भूल जाता है? चुपचाप फिर जाता है और वह तभी जान पाती है जब वह ले चुका होता है घोषित या अघोषित  सात फेरे किसी और औरत के साथ

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गद्दी पर बैठेगा किसान

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गद्दी पर बैठेगा किसान भूखे भारत को अन्न नहीं तुमने गौरव-सम्मान दिया निज तन-मन-धन जीवन सारा भारतमाता पर वार दिया हरित-क्रांति के योद्धा तुम तुम ही हो सच्चे सेनानी तूफान भंवर आये लाखो किंचित भी हार नहीं मानी दुनिया के नक्शे पर भारत तेरे  बल से हुंकार रहा मंदी महंगाई उथल-पुथल तेरे दम से ही संभाल रहा संकट सीमाओं पर आये नेत्रों को क्रुद्ध कराल किया समरांगण में कितनी ही बार दुश्मन हत किया हलाल किया धन-मान-कीर्ति से परे रहे भारत भर को उपहार दिये है किसे ग्यात हे कृषक देव तुमने कितने उपवास किये शिखरों , शीशों पर चढने से बेहतर बुनियाद में गड जाना चपचाप मौन खामोशी से सूली पर हंसकर चढ जाना केवल जीने का नहीं अपितु मरने का ढंग सिखाया है निस्पृह निर्मोही कर्मवीर तू सचमुच मां का जाया है ऐसे बेटो संतानों से हीं भारतमाता का मान रहा तेरी प्रतिभायें क्षमतायेंअब सकल विश्व है जान रहा आगे आओ नेतृत्व करो दो दिशा देश को कृषक देव सिंहासन आज पवित्र करो गद्दी पर बैठो कृषक देव सारा भारत हरषायेगा जब गद्दी पर बैठेगा किसान सारा भारत

कुछ रचो

कुछ रचो कुछ लोगों के लिये शब्द तन कर खडे होने का नहीं पेट भरने का ज़रिया हैं बिकाऊ माल हैं प्रोडक्ट हैं अपनी जगह उनके मज़में उनकी कलाबाज़ियां करेक्ट हैं हर व्यक्ति कोई न कोई मज़बूरी है पर , शब्द के उपयोग में सावधानी ज़रूरी है आज जब कंप्यूटर तक वायस कोड से चलने लगा है तो शब्द की अुशासनहीनता से कुछ भी हो सकता है और बाज़ार में बिकते -बिकते शब्द घर को भी बाज़ार बना सकता है शब्द के ' मार्केटिंग-मेन ' शब्दों को बाज़ार में नंगा मत नचाओ घर को बाज़ार होने चसे बचाओ बाज़ारू होने में वक्त नहीं लगता है ' मार्केटिंग मैन" सिर्फ अपने आपको ठगता है अतः मंत्र और गाली में फर्क करो जहां पवित्रता हो   मन हो शब्द को वहां धरो वरना , एक दिन ये शब्द तुम्हे ही मुंह चिढायेंगे मज़में का कोई चरित्र नहीं होता तुम्हारे सामने ही अन्य , तुमसे घटिया मज़मा लगायेंगे घटियापन की इस दौड में शब्द का क्या होगा ? पर , तुम्हें इससे क्या मतलब ? तुमने तो फूहडता की तालियां सुनीं हैं सृजन के दर्द को कहां भोगा ? पर , सृजन के दर्द

ये कैसी आज़ादी आयी?

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ये कैसी आज़ादी आयी ? ये कैसी आज़ादी आयी ? ये कैसी आज़ादी पायी ? इस आज़ादी की खातिर ही भगतसिंह ने प्राण दिये थे ? और ढींगरा ने लंदन जा - छीन वायली के प्राण लिये थे इस आज़ादी की खातिर ही बिस्मिल थे फांसी पर झूले कहते हैं बहुतों के घर  में महीनों नही जले थे चूल्हे ' काला-पानी ' से कितने ही लाल लौटकर घर ना आये जिनके बलिदानों के किस्से हमने बरसों बरस हैं गाये लंबी है फेहरिस्त गिनाते भर आता आंखों में पानी धन्य-धन्य थे वीर धन्य थी उन वीरों की अमर ज़वानी लेकिन , इस जनतंत्र ने कैसा आज़ादी का चित्र कर दिया ? आते ही इस आज़ादी ने- भारत को दो फाड कर दिया और आज तो पूरा भारत टुकडों में बंटता जाता है चुपके-चुपके भारत मां का अंग -अंग कटता जाता है इतने नपुंसक और नाकारों का भारत पर राज हो गया इतना तलक बता ना पाये आखिर कहां सुभाष खो गया ? सत्ता की हर एक कुर्सी पर बगुले औ सियार बैठे हैं रीढहीन , लिज़लिज़े , निकम्मे कायर और गंवार बैठे हैं कहीं कभी भी किसी मोड पर अबला की अस्मत लुट जाती जिनपे हिफाज़त का ज़िम्मा है उनसे रपट तक लिख

जरूरी है ठोंक-ठाक

ठीक हम कर रहे हैं,ठीक से हम कर रहे हैं मित्र ,     यह बात भी ठीक से पता नहीं ठीक-ठाक रहे तो,      करते रहेंगे हम- ठीक ना रहने में अपनी खता नहीं सब कुछ ठीक हो जाय चाहने से क्या? मात्र चाहने से ठीक कभी कुछ हुआ नहीं जरूरी है ठोंक-ठाक ठीक-ठाक रखने को ऐसी ठोंक-ठाक में कुछ भी बुरा नहीं

जरूरी है ठोंक-ठाक

ठीक हम कर रहे हैं,ठीक से हम कर रहे हैं मित्र ,     यह बात भी ठीक से पता नहीं ठीक-ठाक रहे तो,      करते रहेंगे हम- ठीक ना रहने में अपनी खता नहीं सब कुछ ठीक हो जाय चाहने से क्या? मात्र चाहने से ठीक कभी कुछ हुआ नहीं जरूरी है ठोंक-ठाक ठीक-ठाक रखने को ऐसी ठोंक-ठाक में कुछ भी बुरा नहीं

मेरे गीत संग्रह 'अक्षांश अनुभूतियों के,का विमोचन समारोह

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मेरे गीत संग्रह 'अक्षांश अनुभूतियों  का विमोचन करते डा०कर्णसिंह,साथ में हैं बायें से ---पं०रामप्रसाद बिस्मिल फाउंडेशन के कार्यक्रम संयोजक,लेखक(अरविंद पथिक ),विमोचित पुस्तको को प्रदर्शित करते डा० कर्णसिंह,पं०सुरेश नीरव    एवं अमरनाथ अमर अरविंद पथिक को पं०रामप्राद बिस्मिल सद्भावना सम्मान' से सम्मानित करते डा० कर्णसिंह ,मध्य में हैंपं०रामप्रसाद बिस्मिल फाउंडेशन के  अध्यक्ष पं० सुरेश नीरव

परिचय

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आप पूंछते हैं  मैं कौन हूं? आप को कैसे बताऊं ? कैसे समझाऊं  कि कौन हूं मैं  क्योंकि जो मैं हूं उसे आप पहचान नहीं सकते  और जिसे आप पहचान सकते हैं  वह मैं बन नहीं सकता पर इतना तय है  कि मैं किसी पालिटिकल पार्टी का भोंपू नहीं हूं नारी देह का नग्न भोंडा प्रदर्शन करता फिल्मी इश्तहार नहीं हूं, सनसनीखेज़ खबरों का सांध्य अखबार नहीं हूं मै तो कोई स्वामी महंत या दैवी-पैरोकार भी नहीं हूं फिर भी मैं हूं अपनी संस्कृति को तिल-तिलकर नष्ट होते देखती नम आंख हूं मैं गांधी,सुभाष और भगतसिंह के सपनों की राख हूं हमेशा से एक बवाल हूं दुखियों की आह हूं लाचारों के लिए राह हूं मगर आप मुझे अब भी नही पहचान पायेंगे क्योंकि,आपकी आंखों पर तो भौतिकता का परदा पडा है जो दीवार बनकर हमारी और आपकी जान-पहचान के बीच खडा है इसलिए,आप दिन के उजाले मे भी मुझे पहचान नहीं पायेंगे आप तो सिर्फ मोटे बैंक बैलेंस और झंडे-बत्ती वाले विशिष्ट लोगों को जानते हैं आप आदमी को कहां पहचानते हैं आप मुझे नहीं जानते? यह आपका और इस देश का दुर्भाग्य है क्योंकि मैं तो अंधेरे मे भी चमकने वाला रवि हूं अरे,मैं सदियों से