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मार्च, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

और हम सदमें में हैं

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गज़ल हुक्मरां खुद चल के आये और हम सदमें में हैं वे गले लग मुसकुराये        और हम सदमें में हैं ढेरों वादे , गिले-शिकवे ,    कानाफूसी ,         गुफ्तगू जाने क्या-क्या कह रहे वे ? और हम सदमें में हैं वे शहीदों की शहादत पर फफक कर रो रहे मुट्ठियां भिंच सी रही हैं और हम सदमें में हैं घर से बाहर और बाहर से बहुत बाहर तलक छा गया तम घना गहरा और हम सदमें में हैं जेल से छूटे तो      सीधे जेल मंत्री बन गये ज़श्न में डूबा शहर है और हम सदमें में हैं इतने बरसों बाद भी वे , झूठ पर कायम रहे सच झुकाये सिर खडा है और हम सदमें में हैं ' पथिक ' जब से मंज़िलों की बात करने लग गये रास्तों ने की बगावत   और हम  सदमें में हैं ,                                ------ अरविंद पथिक

मैं बंदा हिंद वालों का हूं,हिंदोस्तां मेरा

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शहीदे आज़म भगत सिंह जिस महान क्रांतिकारी को अपना आदर्श कहते थे वे थे---करतार सिंह सराभा।१९वर्ष की आयु में मातृभूमि पर मर मिटने वाले इस महान क्रांतिकारी को एक बेहतरीन शायर के रूप में भी जाना जाता है।शहीदे आज़म को श्रद्धांजलि देने के लिये उनके आदर्श करतार सिंह सराभा की यह बेहतरीन गज़ल आपको सौंप रहा हूं, यदि आपको लगे कि इस गज़ल के भाव हर भारतवासी के भाव होने चाहिये तो शेयर करें-- यही पाओगे महशर में ज़बां मेरी , बयां मेरा मैं बंदा हिंद वालों का हूं , हिंदोस्तां मेरा मै हिंदी , ठेठ हिंदी , जात हिंदी हूं यही मज़हव , यही फिरका , यही खानदां मेरा मैं इस उजडे हुये भारत का एक ज़र्रा हूं यही बस इक पता मेरा , यही नामो-निशां मेरा कदम लूं चूम मादरे-भारत तेरे , मैं बैठते-उठते कहां किस्मत मेरी ऐसी ? नसीबा यह कहां मेरा ? तेरी खिदमत में अय भारत , यह सिर जाय , यह जां जाय तो समझूंगा , यह मरना हयाते जादवां मेरा

अग्रज सम्मान दिवस

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कल अमर शहीद भगतसिंह का बलिदान दिवस है।सारा देश भारतमाता के इस महान  सपूत को अपने प्रणाम निवेदित कर रहा है।इस अवसर पर मैं नया कुछ न कहकर उस महानायक के व्यक्तित्व के एक अनछुये पहलू की ओर आप सभी राष्ट्रभ्क्तों का ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा।वह पक्ष है अपनी अग्रज पीढी के प्रति भगतसिंह का आदर-सम्मान प्रकट करने का भाव जो उन्होनें अपनी अग्रज पीढी से ही सीखा था।इस का एक ऊदाहरण आपके समक्ष रख रहा हूं।पं०रामप्रसाद बिस्मिल के बलिदान के बाद जब क्रांतिकारी संगठन बिखर सा गया था तो सर्वप्रथम ' किरती ' पत्रिका में जनवरी १९२८ में भगतसिंह ने विद्रोही के छद्म नाम से "शहीदे वतन श्री रामप्रसाद बिस्मिल का अंतिम संदेश " नाम से प्रकाशित कराया।इस लेख से पूर्व जो टिप्पणी शहीदे आजम ने शहीदे वतन के लिये की वह ध्यान देने योग्य है , उन्होने लिखा--- "आपने एक लेख ' निज जीवन की एक छटा ' लिखा था जो गोरखपुर के स्वदेश ' अखबार में छपा था।उसी का संक्षेप हम पाठकों की सेवा में रख रहे हैं , ताकि वे जान सकें कि उन क्रांतिकारी वीरों के शहादत के समय क्या विचार थे।" जब मैं बिस्मिल चरित

मौज फकीरी आ जाये तो होम करें सब कुछ

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ना ही मन ने हमारी मानी , ना हमने मन की इच्छाओं पर नहीं लुटायी ,  पूंजी जीवन की मौज फकीरी आ जाये तो होम करें सब कुछ यही रही गति नियति हमारे मरूथल जीवन की

जाने कैसा-कैसा होने लगा हिया ?

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जाने कैसा-कैसा होने लगा हिया ? जाने कैसा-कैसा होने लगा हिया ? नंबर डायल किये और फिर फोन रख दिया जाने कौन उठाये ? कैसे सवाल करे ? फाल्स काल पर जाने कैसे भाव धरे ? प्रत्यंचा को चढा पुनः फिर धनुष धर दिया , " बीत गई सो बात गई कह देने में क्या है भीड के बीच में तन्हा         रहते रहने में क्या है" कह सकता है वही दर्द को जिसने नही जिया जाने कैसा-कैसा होने लगा हिया ? सबके मन की करते -करते खुद को भूल गये दायित्वों की शूली पर हम हंसकर झूल गये सोंच रहा हूं आखिर इतने दिन मैं कैसे जिया ?   जाने कैसा-कैसा होने लगा हिया ? जब भी कोई खुशी मिली  तो सोचा तुम होते  देख मेरे संघर्ष फूटकर तुम सचमुच रोते जब तक नहीं पडाव आ गया हमने दम ना लिया जाने कैसा-कैसा होने लगा हिया ? प्याला होठों तक आता है रह जाती है दूरी जीवन जीना कभी तो हो जाता मज़बूरी            हमने किंतु कभी मज़बूरी           में कुछ नहीं किया          और फिर फोन रख दिया                                             अरविंद पथिक

जो कलम को बेंचते हैं ,वे भी तो मक्कार हैं

जो कलम को बेंचते हैं ,वे भी तो मक्कार हैं

रंगीनियां हैं हर तरफ अबीरो-गुलाल की

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रंगीनियां हैं हर तरफ अबीरो-गुलाल की मित्रों पिछले कई वर्षों से आकाशवाणी की राष्ट्रीय प्रसारण सेवा द्वारा आयोजित होलि कवि-सम्मेलन में जाता रहा हूं पर शायद इस बार आकाशवाणी की राष्ट्रीय प्रसारण सेवा  इसे आयोजित नही कर रही  या फिर नये निदेशक लक्ष्मी शंकर वाजपेई चूंकि स्वयं कवि हैं और मैं उनकी मंडली का सदस्य नहीं हूं सो पत्ता कट गया,?सच क्या है ? बहरहाल होली की कविता तो किसी ना किसी को सुनानी ही है तो आप से बेहतर कौन,लीजिये आप लोगों को राष्ट्रीय नहीं अंतर्राष्ट्रीय समझते हुये कविता दे रहा हूं----- रंगीनियां हैं हर तरफ अबीरो-गुलाल की फागुन बह रही है हवा भी कमाल की मस्ती मे गा रही है गोरी भी चाल की हर हुस्न परी हो गयी है सोलह साल की बंदिश नही है कोई  ना ही सवाल है होली का मच रहा घर-घर धमाल है