न्यूटन ,आइंसटीन,सुकरात,महावीर,बुद्ध और टैगोर और कालिदास तथा शेक्सपीयर थोक में पैदा किये भी नहीं जा सकते।













      साक्षात्कार--------पं० सुरेश नीरव से अरविंद पथिक ki बातचीत
गत दिनों पं० सुरेश नीरव से उनके लेखन और दर्शन  को लेकर  लंबी बातचीत हुई।विविध विषयों पर केंद्रित इस बातचीत का सार संक्षेप प्रस्तुत है---

अरविंद पथिक----नीरवजी वे क्या परिस्थितियां या कारण थे जिन्होनें आपको लेखन के लिये प्रेरित किया।

पं० सुरेश नीरव---पथिक जी विग्यान का विद्यार्थी होने  के चलते मैं वैग्यानिक या सैनिक कुछ भी बन सकता था पर लेखन सेच तब भी जुडा रहता क्योंकि लेखक कोई बनता नहीं है ।वह तो होता है,बिना हुये कोई लेखक बन नहीं सकता।लेखन जिसकी आंतरिक ज़रूरत बन जाता है वह लेखक से कैसे बच सकता है?शायद इसलिये मैने लेखन को को अपनी अभिव्यक्ति का साधन चुना।हो सकता है अभिव्यक्ति ने भी  अपने को अभिव्यक्त करने के लिये मुझे माध्यम के रूप में चुना हो।

अरविंद पथिक--- कौन से कारण  आनुवंशिक या पारिस्थितिक या अन्य कोई जो आपको लेखन के लिये महत्वपूर्ण लगते हैं?

पं० सुरेश नीरव---ये एक ऐसा प्रश्न है जसे बहिर्ंतर्दर्शन कहते हैंयानी जीव का निर्माण पर्यावरण और आनुवंशिकी दोनों का समवेत प्रतिफल होता है।बीज में पूरा वृक्ष छिपा होता है।लेकिन यदि उसे अंकुरण का वातावरण न मिले तो बीज का विकास कैसे हो सकता है?और यदि बहुत अनुकूल वातावरण भी हो तो भी यदि बीज में घुन लगा हो तो अंकुरण नहीं हो सकता।अंकुरण के लिये भीतर और बाहर दोनों की ही अनुकूलता अनिवार्य।

अरविंद पथिक----लेखन के लिये अनुकूल परिस्थिति से आपका आशय क्या है? कोई व्यक्ति संपन्न परिवार में जन्म लेकर उच्चकोटि का लेखक बन जाता है तो कोई विपन्नता में पलकर भी महान लेखक बनता है,ऐसे में लेखन के लिये अनुकूल परिस्थिति को आखिर निर्धारित कैसे करेंगे?

पं० सुरेश नीरव------पथिक जी संपन्नता और विपन्नता सापेक्ष इकाइयां हैं।अनुकूलता या प्रतिकूलता संपन्नता या विपन्नता नहीं होतीं।यदि अभाव और कष्ट को आप विपन्नता से रेखांकित करना चाह रहे हैं तो सृजन के लिये तो ये उर्वरक का काम करती हैं।बीज को धरती के नीचे का अंधकार,तपन ,घुटन,सीलन सब कुछ सहकर अपने को तैयार करना होता है,वृक्ष हो जाने के लिये।जब बीज मिटता है तो वृक्ष बनता है।तो यह कष्ट ,प्रतिकूलता,विपन्नता आप जो चाहें कह लें ही लेखक को मांजती हैं।असली सवाल तो बीज के अंतस् में वृक्ष होने की छटपटाहट का है।जिन्हें आप संपन्न या आभिजात्य वर्ग का बता रहे हैं,एक अनकही बेचैनी और छटपटाहट यदि उनमें नहीं होती तो वे सुविधा का मार्ग त्याग कर साधना का मार्ग क्यों अपनाते?चाहें वे भारतेंदु हों,गुरूदेव हों या फिर रहीम या बिहारी हों।भौतिक रूप से किस चीज की कमी थी उन्हें?पर कुछ तो था जो उन्हें उनके अधूरेपन के लिये कचोटता था।अधूरापन ,असंतुष्टि ,अभाव ,बेचैनी,छटपटाहट यदि ना हो तो व्यक्ति रचनाकार हो ही नहीं सकता।फिर बिना समुद्र मंथन के नवरत्न नहीं निकला करते।
अरविंद पथिक----- नीरव जी आपके लेखन  वह चाहें कविता हो या गद्य,व्यंग्य हो या दर्शन हर कहीं सापेक्षवाद का प्रभाव नज़र आता है।ये कहां से आया?
पं० सुरेश नीरव------ मेरा होना ही मेरे अस्तित्व के सापेक्ष है।सारा संसार मेरे अस्तित्व के सापेक्ष है।मैं हूं तो मेरे लिये सारा संसार है।संसार तो मेरे बाद भी होगा पर मेरे लिये मेरा संसार मेरे होने तक ही है।इसलिये जो निरपेक्ष है वह भी सापेक्ष से ही अनुभूत किया जा सकता है।इसलिये मेरी व्यष्टि, दृष्टि  और सृष्टि में सापेक्षता का भाव ही मुखर होता है।वैसे जो भी अनुभुत किया जा रहा है या कर रहा है वह सब सापेक्ष ही है निरपेक्ष कुछ नहीं।मसलन आपका प्रश्न मेरे मेरे उत्तर के सापेक्ष है।आपकी अपेक्षा है कि मैं कुच पूंछूं तो उसका उत्तर मिले।मेरा उत्तर भी आपके प्रश्न के सापेक्ष है।अगर कोई पुछेगा नहीं तो कोई बतायेगा भी नहीं।पूछने का तात्पर्य ही है जानना।और जानने का अभिप्राय ही है बताना ,सब कुछ एक दूसरे के सापेक्ष है। शायद मैं अपनी बात कह सका हूं।
अरविंद पथिक---- नीरव जी आप विद्वान हैं परंतु यदि विद्वता का प्रसार न हो अर्थात ग्यान का संचार न हो  तो ग्यान  असहाय नहीं हो जाता?ऐसे मे ग्यान और संचार में  ज़्यादा महत्वपूर्ण  कौन है?
पं० सुरेश नीरव------अरविंद जी पहले तो आप यह जान लें कि ग्यान स्वयं ही संचार है।संचार ही विस्तार है।जब कोई चीज एक जगह से दूसरी जगह पहुंचती है तो इसे संचरण कहा जाता है ।ग्यान कभी जड नहीं होता।उसकी प्रकृति या प्रवृत्ति ही संचरण है और संचरण के लिये अनेक माध्यम हैं।विग्यान में संचालन ,संवहन और विदलन संचार की ही प्रविधियां हैं।ग्यान भी ऐसे ही पहुंचता है।कभी लोग ग्यानी के पास जाते हैं तो कभी ग्यानी लोगों के पास जाता है।संचरण तो ग्यान स्वयं ही तलाश हीह लेता है।हां जिसे आप संचार माध्यम कह रहे हैंऔर शायद आप यह कहना चाह रहे हैं कि ग्यान के प्रसार में वे अपनी भूमिका  प्रभावी ढंग से  नहीं निभा पा रहे हैं तो मैं यही कहना चाहूंगा कि माध्यम  तो माध्यम होता है। उसकी अपनी कोई प्रकृति नहीं होती।संचार माध्यमों में देह के संसार के ज़लसे भी हैं और खोज़ और अनुसंधान के मौलक द्वीप भी,चयन हमें ही करना है।इंटरनेट का व्यापक अंतर्जाल हमारे सामने है।पुस्तकालय किताबों से भरे पडे हैं।हजारों हमले सहने के बाद भी अब भी पुस्तकालयों में रखी किताबें पाठकों की बाट जोह रही हैं।हजारों दुर्लभ ग्रंथ अपनी सामयिक टिप्पणियों के लिये प्रतीक्षारत हैं।सवाल यह है कि न्यूटन ,आइंसटीन,सुकरात,महावीर,बुद्ध और टैगोर और कालिदास तथा शेक्सपीयर थोक में पैदा नहीं किये भी नहीं जा सकते।वे इसीलिये बहुमूल्य हैं क्योंकि वे विरले हैं,अप्रितम हैं,अद्वितीय हैं ।और गहरी पडताल करें तो हम सब अद्वितीय हैं।हम दूसरे या तीसरे दर्ज़े के तब हो जाते हैं जब किसी कतार में जाकर खडे हो जाते हैं।विद्वता केंद्र में स्थित होती है कतारों मे नहीं।----------------------------------------------------- (क्रमशः

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