हिंदी के विकास में विदेशी विद्वानों का योगदान

संदर्भ हिंदी दिवस ---------------------------
            हिंदी के विकास में विदेशी विद्वानों का योगदान
                                 -------------------------------------अरविन्द पथिक
जिस ब्रिटिश सरकार के एक अधिकारी मैकाले ने क्लर्क बनाने के नाम पर अंग्रेजी जानने की अनिवार्यता शुरू की थी- बहुत लोगों को जानकर हैरत हो सकती है कि उसी सरकार ने 1881 में निर्णय कर लिया था कि भारतीय सिविल सेवा में वही अफसर चुने जाएंगे, जिन्हें हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं की समझ है। वैसे हिंदी का प्रशासनिक महत्व अंग्रेज सरकार ने सन 1800 से पहले ही समझना शुरू कर दिया था। दिलचस्प बात ये है कि इसके कारण कतिपय अंग्रेज विद्वान ही थे। कई लोगों को यह जानकार आश्चर्य होगा कि हिंदी का पहला व्याकरण डच भाषा में 1698 में लिखा गया था। इसे हॉलैड निवासी जॉन जीशुआ कैटलर ने हिंदुस्तानी भाषा नाम से लिखा था। इसी तरह हिंदी साहित्य का पहला इतिहास किसी हिंदुस्तानी विद्वान या हिंदुस्तानी भाषा में नहीं लिखा गया था। इसके बाद दो और महत्वपूर्ण पुस्तकें इसी भाषा में रची गईं। 1745 में लिखी पुस्तक हिंदुस्तानी व्याकरण और 1771 में प्रकाशित अल्फाबेतुम ब्रह्मनिकुम। इनके रचनाकारों के नाम हैं क्रमश:  बेंजामिन शुल्ज और कैसियानो बेलिगति थे । हिंदी साहित्य का पहला इतिहास फ्रेंच विद्वान गार्सां द तासी ने 1886 में ला लितरेतर ऐन ऐंदुई इंदुस्तानी नाम से लिखा था। लेकिन हिंदी के सार्वकालिक और सार्वदेशिक महत्व को सबसे पहले एडवर्डटेरी नामक अंग्रेज विद्वान ने समझा था। उन्होंने 1655 में ही कहा था - हिंदुस्तानी देश की बोलचाल की भाषा है जोकि अरबी-फारसी जबानों से बहुत मिलती-जुलती है। लेकिन बोलने में उनसे ज्यादा सुखकर और आसान है। इसमें काफी रवानी है और थोड़े में बहुत कुछ कहा जा सकता है। एडवर्डटेरी को यह जानकार और प्रसन्नता हुई थी कि हिंदी भी अंग्रेजी की तरह बांए से दाएं लिखी जाती है, अरबी और उर्दू की तरह दाएं से बाएं नहीं। एडवर्डटेरी के करीब एक सदी बाद 1782 में एक अंग्रेज अधिकारी हेनरी थॉमस कोल ब्रुक हिंदुस्तान आए। बंगाल सर्विस के योग्यतम अफसरों में उनका नाम था। उन्होंने हिंदुस्तानी भाषा का अध्ययन तो किया ही, संस्कृत से उनका विशेष अनुराग था। कालांतर में संस्कृत में विद्वत्ता के लिए वे विख्यात भी हुए। उन्होंने हिंदी के सार्वजनिक एवं सार्वदेशिक रूप को स्पष्ट करते हुए लिखा- जिस भाषा का व्यवहार पूरे हिंदुस्तान के लोग करते हैं, जो पढ़े-लिखे और अनपढ़ - हर तरह के लोगों की सामान्य बोलचाल की भी भाषा है, जिसे हर एक गांव के लोग समझ- बूझ लेते हैं, यथार्थ में उस भाषा का नाम हिंदी है। कई लोग ये जानकर भी हैरत में पड़ सकते हैं कि बंगाल एशियाटिक सोसायटी भले ही ओरिएंटल ज्ञान-विज्ञान के लिए मशहूर हुई, लेकिन उसकी स्थापना भी अपने हिंदी प्रेम के कारण सर विलियम जोन्स ने किया था। जिसने बाद में पृथ्वीराज रासो, कर्नल टॉड कृत राजस्थान, और बीसलदेव रासो समेत कई अनमोल और तकरीबन लुप्त हो चुके ग्रंथों की खोज की। कर्नल टॉड ने राजस्थानी लोकसाहित्य पर भी काफी काम किया था। इन ग्रंथों के प्रकाशन के बाद ही अंग्रेज सरकार की सरकारी मुद्रा में भी देवनागरी का प्रयोग होने लगा। 
  जब-जब हिंदी का इतिहास लिखा जाएगा, तब-तब अंग्रेज विद्वान एडम गिलक्राइस्ट का नाम सम्मान के साथ लिया जाएगा। वही पहले विद्वान हैं, जिन्होंने पहली बार हिंदी-अंग्रेजी का शब्दकोश तैयार किया। 1787-91 में इस शब्दकोश का हिंदोस्तानी- इंगलिश डिक्शनरी के नाम से दो खंडों में प्रकाशन हुआ था। गिलक्राइस्ट ही पहले विद्वान हैं- जिन्होंने हिंदी का पहली बार भाषावैज्ञानिक अध्ययन पेश किया। उनका ये अध्ययन 1798 में ओरियंटल लिंग्विस्ट के नाम से प्रकाशित हुआ। गिलक्राइस्ट ने 1799 में ओरियंटल सेमिनरी नाम से एक संस्था की स्थापना भी की। जिसके तहत हिंदुस्तानी का अध्ययन किया जाना था।
सन 1799 में एक योग्य अफसर विलियम वटर वर्थ बेली ने भारतीय सिविल सेवा में प्रवेश लिया। यहां ये तथ्य गौर करने लायक है कि तब तक सिविल सेवा में प्रवेश पाने के लिए हिंदी की जानकारी होना औपचारिक तौर पर जरूरी हो गया था। बेली ने ना सिर्फ हिंदी का गहन अध्ययन किया, बल्कि 1800 की हिंदुस्तानी की परीक्षा में दूसरा स्थान हासिल किया था। सन 1802 में उन्होंने हिंदी की वाद-विवाद प्रतियोगिता में हिस्सा लिया और प्रतियोगिता का मेडल और उस जमाने में डेढ़ हजार रूपए नगद भी जीते। जब सिविल अधिकारियों के लिए हिंदी की अनिवार्यता लागू कर दी गई तो यह महसूस किया जाने लगा कि पहले से नियुक्त अधिकारियों को भी हिंदुस्तानी की जानकारी दी जानी चाहिए। इसके लिए एक कॉलेज खोलना तय हुआ और अंग्रेज सरकार ने अपने एक अधिकारी मॉकस वेलेजली को यह कॉलेज खोलने की जिम्मेदारी सौंपी। मॉकस ने ही काफी परेशानी और मेहनत के बाद 4 मई 1800 को कलकत्ता –जोकि  अब कोलकाता है में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की। बाद में गिलक्राइस्ट की इस कॉलेज में बतौर प्रोफेसर नियुक्ति की गई- जो सन 1800 से 1804 तक इस कॉलेज में कार्यरत रहे। जाने-माने भाषा वैज्ञानिक कैलाश चंद्र भाटिया का मानना है कि इतनी छोटी अवधि में गिलक्राइस्ट ने हिंदी के लिए ऐतिहासिक भूमिका निभाई। अपने प्राध्यापकी के इसी दौर में गिलक्राइस्ट ने मानक हिंदी को खड़ी बोली नाम दिया या दूसरे शब्दों में कहें तो खड़ी बोली को ही बतौर मानक हिंदी मान्यता दिलाई। गिलक्राइस्ट ने हिंदी को संवर्द्धित करने का भरपूर प्रयास किया। । वैसे तो कई लोग इस कॉलेज में आते रहे- लेकिन यहां तैनात एक विद्वान विलियम प्राइस ने हिंदुस्तानी की नई व्याकरण जैसी पुस्तक की रचना करके हिंदुस्तानी की अहम सेवा की.

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   यों तो भारत ,भारतीय भाषाओँ ,और संस्कृति से प्रभावित होने वाले विदेशी विद्वानों की लंबी श्रंखला  रही है जिनमें कई चीनी, अरबी, फारसी और योरपीय यात्री शामिल रहे  हैं। .ये विद्वान् भारत, भारतीय संस्कृति और भारतीय भाषाओँ विशेषकर हिंदी के प्रशंसक रहे हैं . ऐसे ही विद्वानों में अन्यतम फादर ग्रियर्सन एवं कामिल बुल्के के योगदान को रेखांकित किये बिना हिंदी की विकास यात्रा को समझा ही नहीं जा सकता.हिंदी को सही मायनो में समझने में, बनाने और गढने में जिस विदेशी विद्वान् ने अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया वो थे जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन  "इंडियन सिविल सर्विस" के अधिकारी ग्रियरसन का स्थान  भाषाविज्ञान के क्षेत्र में अमर है। सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन "लिंग्विस्टिक सर्वे ऑव इंडिया" के प्रणेता के रूप में अमर हैं  । ग्रियर्सन को भारतीय संस्कृति और यहाँ के निवासियों के प्रति अगाध प्रेम था। भारतीय भाषाविज्ञान के वे महान उन्नायक थे। नव्य भारतीय आर्यभाषाओं के अध्ययन की दृष्टि से उन्हें बीम्स ,भांडारकर और हार्नली के समकक्ष रखा जा सकता है। एक सहृदय व्यक्ति के रूप में भी वे भारतवासियों की श्रद्धा के पात्र बने.  7 जनवरी 1851 को डब्लिन ,आयरलैंड में जन्मे ग्रियर्सन ने बचपन से ही भारतीय भाषाओँ का  अध्ययन किया था । 1873 में वे इंडियन सिविल सर्विस के कर्मचारी के रूप मे भारत आए और प्रारंभ से ही भारतीय आर्य तथा अन्य भारतीय भाषाओं के अध्ययन की ओर रुचि प्रकट की। 1888 से 1903 तक उन्होंने हिंदी तथा भारतीय भाषाओँ के विकास लिए  सामग्री संकलित की। 1902 में नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के पश्चात् 1903 में जब उन्होंने भारत छोड़ा तो उनका विस्तृत कार्य प्रकाश में आया .उनके द्वारा किया गया कार्य   21 जिल्दों में है और उसमें भारत की 179 भाषाओं और 544 बोलियों का सविस्तार सर्वेक्षण है। साथ ही भाषाविज्ञान और व्याकरण संबंधी सामग्री से भी वह पूर्ण है। ग्रियर्सन कृत सर्वे अपने ढंग का एक विशिष्ट ग्रंथ है। उसमें हमें भारतवर्ष का भाषा संबंधी मानचित्र मिलता है और उसका अत्यधिक सांस्कृतिक महत्व है। दैनिक जीवन में व्यवहृत भाषाओं और बोलियों का इतना सूक्ष्म अध्ययन पहले कभी नहीं हुआ था। बुद्ध और अशोक की धर्मलिपि के बाद ग्रियर्सन कृत सर्वे ही एक ऐसा पहला ग्रंथ है जिसमें दैनिक जीवन में बोली जानेवाली भाषाओं और बोलियों का दिग्दर्शन प्राप्त होता है .
ग्रियर्सन की तरह ही एक अन्य विदेशी विद्वान् का हिंदी जगत हमेशा कर्जदार रहेगा .वह व्यक्तित्व है कामिल बुल्के का .फादर कामिल बुल्के  बेल्जियम के पश्चिमी प्रांत फ्लैंडर के निवासी थे। उन्होंने लिखा है;’,”मैं जब 1935 में भारत आया तो अचंभित और दुखी हुआ। मैंने महसूस किया कि यहाँ पर बहुत से पढ़े-लिखे लोग भी अपनी सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति जागरूक नहीं हैं। यह भी देखा कि लोग अँगरेजी बोलकर गर्व का अनुभव करते हैं। तब मैंने निश्चय किया कि आम लोगों की इस भाषा में महारत हासिल करूँगा।' उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत में मास्टर्स डिग्री हासिल की।
      कामिल बुल्के को रामचरित मानस ने  बहुत अधिक प्रभावित किया। उन्होंने इसका गहराई से अध्ययन किया। उन्होंने अपनी थीसिस के लिए इससे जुड़ा विषय चुना : रामकथा : उत्पत्ति और विकास'। इस पर उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपनी डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की. उनके द्वारा प्रस्तुत शोध प्रबंध की विशेषता यह है कि यह मूलतः हिन्दी में प्रस्तुत पहला शोध प्रबंध है। फादर बुल्के इलाहाबाद में शोध कर रहे थे, उस समय यह नियम था कि सभी विषयों में शोध प्रबंध केवल अँगरेजी में ही प्रस्तुत किए जा सकते हैं। फादर बुल्के के लिए अँगरेजी में यह कार्य अधिक आसान होता पर यह उनके हिन्दी स्वाभिमान के खिलाफ था। उन्होंने आग्रह किया कि उन्हें हिन्दी में शोध प्रबंध प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाए। इसके लिए शोध संबंधी नियमावली में परिवर्तन किया गया। बुल्के बहु-भाषाविद् थे। उनका अपनी मातृभाषा फ्लेमिश के साथ-साथ अँगरेजी, फ्रेंच, जर्मन, लैटिन, ग्रीक, संस्कृत और हिन्दी पर भी संपूर्ण अधिकार था। बुल्के आजीवन हिन्दी की सेवा में जुटे रहे। हिन्दी-अँगरेजी शब्दकोश के निर्माण के लिए सामग्री जुटाने में वे सतत प्रयत्नशील रहे। आज उनका शब्दकोष सबसे प्रामाणिक माना जाता है। उन्होंने इसमें 40 हजार शब्द जोड़े और इसे आजीवन अद्यतन भी करते रहे। बाइबल का हिन्दी अनुवाद भी किया। 
फादर बुल्के ने कहा है,' 1938 में मैंने हिन्दी के अध्ययन के दौरान रामचरित मानस तथा विनय पत्रिका का परिशीलन किया। इस अध्ययन के दौरान रामचरित मानस की ये पंक्तियाँ पढ़कर अत्यंत आंनद का अनुभव हुआ :

धन्य जनमु जगतीतल तासू।
पितहि प्रमोद चरित सुनि जासू॥ 
चारि पदारथ करतल ताके।

  वे हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचारित करने वाली समिति के सदस्य बने। भारत की नागरिकता पाने के बाद वे खुद को 'बिहारी' कहकर बुलाते थे। भारत सरकार ने हिन्दी में उनके योगदान को देखते हुए 1974 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। उनकी मृत्यु 17 अगस्त 1982 को दिल्ली में हुई। \
      हिंदी के साथ एक अजीब संयोग भी जुडा है  . १४ सितम्बर को हम हिंदी दिवस के रूप में मनाते पर यह तथ्य बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि.१४ सितम्बर १८५७ को अंग्रेजों ने बहादुर शाह जफर के नेत्रत्व वाली हिन्दुस्तानी फौजों को हराकर फिर से दिल्ली के लाल किले पर अधिकार कर लिया था .१४ सितम्बर १९४९ को संविधान सभा ने  देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी भाषा को भारत संघ क्षेत्र के सरकारी कामकाज की भाषा स्वीकारते समय इस ऐतिहासिक अपमान को न जाने क्यों बिसरा दिया  ? हिंदी के साथ विसंगतियों का सिलसिला इसके राजभाषा बनने से पूर्व ही शुरू हो गया था  .आज़ादी के संघर्ष के दौरान महात्मा गाँधी समेत अधिकांश राष्ट्रीय नेताओं ने हिंदी को देश को एकता के सूत्र में बांधने वाली भाषा के रूप में मान्यता देते हुए  इसे राजभाषा से बढ़कर राष्ट्रभाषा का दर्जा देने की वकालत की पर विश्व में ६० करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली हिंदी जोकि चीन की मंगेरिन के बाद आज दुनिया की सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है. आज भी अपना उचित स्थान पाने के लिए संघर्षरत है इतना ही नहीं फ़िजी,मॉरीशस,गुयाना,सूरीनाम जैसे दूसरे देशों की अधिकतर जनता हिन्दी बोलती है। भारत से सटे नेपाल की भी कुछ जनता हिन्दी बोलती है। आज हिन्दी राजभाषा,सम्पर्क भाषा,जनभाषा के सोपानों को पार कर विश्वभाषा बनने की ओर अग्रसर है। फिर भी स्वयम अपने देश में बहुत  से मंचों पर अपमान और उपेक्षा की शिकार है आज हिंदी बाज़ार की भाषा बन चुकी है उसके विकास में सिनेमा और मनोरंजन जगत से जुड़े कारकों का भी योगदान है परन्तु आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी हिंदी यदि हिंदी दिवस और हिंदी पखवाड़े जैसे कर्मकांडों की मोहताज़ समझी जा रही है तो हमे आत्मावलोकन करने की भी आवश्यकता है .

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