यों तो बिना वजह ही सारे दिन हम व्यस्त रहे

यों तो बिना वजह ही सारे दिन हम व्यस्त रहे
महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे
संघर्षों के ढेर से हमने सुख के पल बीने
किंतु कभी हंसते नयनों से स्वप्न नहीं छीने
यों तो हम मधुमासी रातों मे संत्रस्त रहे
महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे
चाटुकारिता के कांधे चढ बौने ऐंठ गये
लेकिन ऐसा नही कि कुंठित हो हम बैठ गये
शनैः शनैः ही सही मगर हम गति अभ्यस्त रहे
यों तो बिना वजह ही सारे दिन हम व्यस्त रहे
अगर सामने कभी पड गये झुक झुक नमन किये
ऐसे मित्रों ने पीछे से भीषण ज़खम दिए
हंसकर दर्द सहे सहकर हम खुद मे मस्त रहे
महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे
औरों को क्या कहें तुम्हारे लिए भी हम बोझा
मन मे जगह नही दी लेकिन अखबारों मे खोजा
सच तो यह है तुम भी हमको करते पस्त रहे
महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे
जीवन जैसा मिला हमे हमने हंसकर स्वीकारा
कई खोखले वट वृक्षों को हमने दिया सहारा
ज्यों ही मौका लगा उन्होने कर मे शस्त्र गहे
महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे
उम्मीद है आपको कविता पसंद

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