अधूरे ख्वाब के लिए ---

 

                          शाह साहब की मौत की खबर दिल्ली में आग की तरह फैली पर दिल्ली तो पिछले पचास बरस से बदअमनी की आग में झुलस रही थी .शाह साहब ने अपनी जिंदगी में दस बादशाहों को तख्त से तख्ते तक का सफ़र करते देखा था .दिल्ली के तख्त पर कब्जा कर बाबर ने जिस मुगल वंश की शुरुआत लगभग डेढ़ सौ बरस पहले की थी ,के तख्त पर  अब शाह आलम काबिज़ था .आलमगीर की मौत के बाद दिल्ली के तख्त पर जिस तरह से एक के बाद एक निकम्मे और नाकारा बादशाह बैठे थे उनसे हिंदुस्तान को पूरी तौर पर इस्लामी मुल्क बनाने का ख्वाब अपनी आँखों के सामने टूटते बिखरते देख शाह साहब ने बहादुरशाह से लेकर मुहम्मद शाह तक हर बादशाह को हिंदुस्तान में मुकम्मल तौर पर शरिया नाफ़िज करने के लिए तैयार किया था पर हर बार इन निकम्मे शहंशाहों से उन्हें मायूसी ही हासिल हुयी थी .और जब तख्त की हिफाजत के लिए इन बेगैरत और बदजात बादशाहों ने कभी मराठों ,कभी जाटों तो कभी राजपूतों के आगे गिडगिडाना शुरू कर दिया तो शाह साहब को यकीन हो गया कि अब बाबर की इस नस्ल में अब इतनी कुव्वत नहीं बची कि वह हिंदुस्तान पर अब और आगे राज कर सके .अपने नाम के साथ देहलवी तखल्लुस लगाते हुए भी शाह साहब को तबसे घिन सी आने लगी थी जबसे उन्होंने इन लुटेरे मराठों को दिल्ली के बादशाह से चौथ वसूलते देखा था .जब शाह –ए-ईरान –नादिर ने दिल्ली पर हमला किया था तो उन्हें उम्मीद जगी थी कि अब दिल्ली का तख्त तैमूर की नालायक नस्लों के हाथ से निकल कर शाह –ए –ईरान  के तुर्कमेनिस्तान तक फैले विशाल साम्राज्य का हिस्सा बनेगा पर उनकी ये उम्मीद बहुत जल्दी दम तोड़ गयी .शाह –ए-ईरान दिल्ली की रियाया और तख्त- ए- ताउस दोनों को लूटकर वापस ईरान लौट गया था .शाह साहब का हिंदुस्तान को दारुल उलूम देखने का ख्वाब एक बार फिर टूट गया था पर जब शाह –ए-ईरान को कत्ल कर उनका सिपहसलार अहमद खुद शहंशाह बन गया तो उन्होंने न सिर्फ ख़त लिखकर अहमद को हिंदुस्तान पर हमला करने के लिए उकसाया बल्कि काफिरों के रहम ओ करम पर हिंदुस्तान के बादशाह बने मुगलों को क़त्ल कर एक नये इस्लामिक राजवंश की शुरुआत करने की गुज़ारिश एक के बाद एक कई ख़त लिखकर अहमद शाह से की थी .यह शाह साहब ही थे जिन्होंने अहमदशाह को पहले पहल दुर्रानी के ख़िताब से नवाज़ा था .पूरे हिंदुस्तान की इस्लामी रियासतों को मराठो के मुखालिफ और अहमदशाह दुर्रानी के साथ तभी खड़ा किया जा सकता था जब इस जंग को जिहाद कहा जाए और जब तक मुगल नाम के लिए ही सही हिंदुस्तान के बादशाह थे उनके मुखालिफ कोई भी जंग जिहाद नहीं कही जा सकती थी .हिंदुस्तान की इस्लामिक रियासतों के सरमायेदारों की इस उलझन को शाह वलीउल्ला देहलवी ने अपने रहीमिया मदरसे से एक फतवा जारी कर सुलझा दिया .इस फतवे में लिखा था कि चूँकि दिल्ली का मुगल बादशाह  काफिरों के रहमो करम पर जिंदा है इसलिए इसके राज को काफिरों का राज ही समझकर हिंदुस्तान को दारुल हरब माना जायेगा .दारुल हरब के मुखालिफ जंग हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है,हिंदुस्तान को दारुल इस्लाम बनाने के लिए हर मुसलमान को जंग में शाह ए-अफगान अहमदशाह दुर्रानी का साथ देना चाहिए .

वलीउल्ला की कोशिशों का ही नतीजा कि दुर्रानी न सिर्फ कई बार  हिंदुस्तान  आया बल्कि उसने क्रूरता और अमानुषिकता का जो नंगा नाच मथुरा और वृन्दावन में किया उसे जानकर तो तैमूर और औरंगजेब भी शर्मा गये होंगे .मराठों की पराजय और हिन्दुओं के मन्दिरों को तोड़कर ,उनके भगवान की मूर्तियों को पैरों कुचलने के बाद जब अहमद दिल्ली के तख्त पर काबिज़ हो बाबर की तरह हमेशा के लिए हिंदुस्तान में बस जाना चाहता था तभी गोकुल में नागा साधुओं के पलट वार और उसके बाद फैले हैजे ने अफगान फौज में भगदड़ मचा दी थी .कही फौज बगावत कर उसका ही सर कलम ना कर दे इस डर से दुर्रानी रातों रात हिंदुस्तान को उजड़ा ,लाचार और अपमानित छोड़कर रातों रात वापस अफगानिस्तान जा रहा था .जबसे यह खबर शाह साहब को मिली थी उन्हें अपना ख्वाब चकनाचूर होता लग रहा था .बार बार एक ही सवाल उनके दिलो दिमाग पर छाया हुआ था कि यूरोप से अफ्रीका और इंडोनेशिया से ईरान तक जब इस्लाम का परचम पूरी शान से लहरा रहा है तब पिछले चार पांच सौ साल से किसी न किसी शक्ल में हिन्दुतान में इस्लामी हुकुमत रहने के बावजूद जब इस मुल्क को मुकम्मल तौर पर इस्लामी मुल्क नहीं बनाया जा सका तो क्या अपने रोजमर्रा के खर्चों के लिए हिन्दू सेठों और बनियों के मोहताज़ हो चुके इन मुगलों से इस मुल्क में शरीयत लागु करने की उम्मीद करना बेमानी नहीं हो चुका है .पिछले पचास साल से उन्होंने खुद और उससे पहले आलमगीर और शाहजहाँ के जमाने से ही उनके अब्बा मरहूम अबू रहीम ने इस मुल्क को मुकम्मल तौर पर इस्लामी मुल्क बनाने के लिए जो मेहनत की है वह सब बर्बाद नहीं हो जाएगी .

ऐसे ही हजारों ख्याल जबसे दुर्रानी के वापस अफगानिस्तान जाने की खबर वलीउल्ला को मिली थी ,को एक पल के लिए भी चैन से बैठने नहीं दे रहे थे .जब बेचैनी हद से ज्यादा बढ़यी तो उसने घबरा कर तस्वीह फेरनी शुरू कर दी और उसे सीने में तेज दर्द उठता हुआ महसूस हुआ .उसने जनानखाने का रुख किया और बेगम को पैरो में मालिश करने को कह बड़े बेटे अज़ीज़ को हाथ के इशारे से अपने पास बुलाकर धीमी आवाज़ में रुक रुक कर बोलना शुरू किया –

“ प्यारे बेटे अज़ीज़! मैंने ताजिंदगी पूरी ताकत और हिकमत से इस्लाम की खिदमत की .आज मैं तुमसे वही कहता चाहता हूँ जो मेरे अब्बा हुजुर अबू रहीम साहब ने कहा था .वालिद साहब ने आखिरत के वक्त

फरमाया था कि अब हिंदुस्तान में इस्लाम तलवार और तख्त के दम पर नहीं तालीम के दम पर ही फैलाया जा सकेगा .मरहूम अब्बा हुजुर ने दूरंदेशी दिखाते हुए ही इस रहीमिया मदरसे की बुनियाद डाली थी .अपनी सारी जिंदगी मैं इन नालायक मुगलों के बजाय दिल्ली के तख्त पर कभी शाहे ईरान नादिर तो कभी अहमद को

बिठाकर हिंदुस्तान को दारुल उलूम बनाने के मंसूबे बांधता रहा .पर अफ़सोस मेरी तमाम कोशिशे आज बेकार जाती दिख रही हैं .आज मुगल ‘मराठों और जाटो’ के मोहताज़ हो चुके हैं .मुसलमान दिन पर दिन

जहालत,जिल्लत और गरीबी में डूबता जा रहा है .मुल्क की सारी दौलत हिन्दू व्यापारियों के तहखानों में जमा होती जा रही है .अब दिल्ली के तख्त पर किसी मुसलमान हुकूमत का सही मायनों में कायम रहना एक

नामुमकिन सी बात हो गयी है .पर मुझे अल्लाह की रहमत पर भरोसा है और जो गलती मैंने की वो तुम न करना बल्कि वो करना जो मेरे अब्बा हुजुर करना चाहते थे .”

कहते कहते वलीउल्ला का दम फूल गया .खांसी का दौरा सा पड़ा .अब्दुल अज़ीज़ ने पास रखी सुराही से चाँदी के गिलास ,में पानी पलटकर वलीउल्ला के होंठो से लगाया .एक हल्का सा घूंट भर

कर वलीउल्ला ने फिर बोलना शुरू किया ---

“ अब्बा हुजूर ने मदरसा -ए -रहीमिया एक बड़े मकसद से शुरू किया था .और वो मकसद था हर मुसलमान को जिहाद के लिए तैयार करना .वो कहा करते थे कि गैर मुसलमान को मुसलमान होने

की दावत देना और दावत नामंज़ूर करने पर उस से तब तक जंग करना जब तक वह मुसलमान न हो जाए हर मुसलमान का दीनी फ़र्ज़ है .यह जंग ही जिहाद है और जिहाद सिर्फ शाहों और सुल्तानों

पर ही नहीं हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है .हिंदुस्तान की ज्यादातर जनता अरबी और फारसी न पढ़ सकती है और न ही लिख और समझ सकती है .इसलिए एक ऐसा मदरसा खोलने की बहुत ज़रूरत

है जो पूरी दुनिया के मुसलमानों को जिहाद के लिए तैयार कर सके .हमारा रहीमिया मदरसा बहुत अच्छे से यह काम कर रहा है पर इतना काफी नहीं है .आने वाले वक्त में बहुत मुमकिन है

,दिल्ली के तख्त पर इस्लामी हुकुमत कायम न रहे ,पर ये मदरसा रहेगा .और जब शाही इनायतदारी खत्म हो


जायेगी तो यह एक मदरसा उस बड़े मकसद को पूरा करने के लिए नाकाफी होगा .प्यारे बेटे

अज़ीज़ !तुम हिंदुस्तान में ऐसे और नये नये बहुत से मदरसे बनाना जिनका एक ही मकसद होगा--सारी दुनिया में इस्लाम की हुकुमत--- .” कहते कहते वलीउल्ला ने अब्दुल अज़ीज़ के हाथों को

कसकर पकड लिया .एक बार फिर जोर से खांसी का दौरा पड़ा और जब खांसी रुकी तब वलीउल्ला की रूह जिस्म को छोड़कर जा चुकी थी.

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