दो मुक्तक


व्यर्थ के काम ही ज़िंदगी हो गयी
दर्द के नाम ही ज़िंदगी हो गयी
नाम जबसे  स्वयम को दिया है
ट्रेन;बस,ट्राम ही ज़िदगी हो गयी


हर चेहरे के पीछे हमने एक नया चेहरा देखा
हमने यहां अमीना के संग बूढे का सेहरा देखा
इस दुनिया की एक खासियत यारों हमने खोज़ ही ली
जो जितने ऊंचे बैठा है वह उतना बहरा देखा 

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