लिखना मेरा काम है सोचना पढने वालो का


कई दिन से सोच रहा था कि इस विषय पर लिखूं ना लिखूं पर आज ये सोचकर लिखना मेरा काम है सोचना पढने वालो का,लिखने का फैसला किया--
इन दिनो मीडिया के सभी माध्यमों में और सोशल मीडिया में कुछ ज़्यादा ही फतवाबाज़ी की बाढ आयी हुई है और शायद यह फतवाबाज़ी ही इस माध्यम को गंभीरता से ना लेने को मज़बूर करती है।सरसरी तौर पर देखे तो यहां देशभक्त,समाज सुधारक आदर्शवादी ,क्रांतिकारी साहित्यकार,इफरात में और कुछ श्लील अश्लील चर्चा करते लोग मिल जायेंगे।इस मीडिया में आजकल सोनिया,नेहरू,मनमोहन,दिग्विजय को इतनी गालियां मिल रही हैं कि उन्हें चर्चा में बने रहने को विज्ञापनों पर चवन्नी खर्च करने की ज़रूरत नहीं।
एक बडा काम और हो रहा है इस गाली देने वाली ज़मात में शामिल हो जाइये और महान क्रांतिकारी का तमगा पा जाइये।देशभक्ति नापने का एक ही पैमाना।आपने ज़रा इनकी बात काटी और आप कांग्रेसी कुत्ते और सेक्यूलर और हिंदुओं के पतन के ज़िम्मेदार हो गये।सुभाष ,आज़ाद और भगतसिंह की भक्त यह पीढी भगतसिंह का हत्यारा गांधी को तो आज़ाद का हत्यारा नेहरू को समझती है और अपने अधकचरे और पुर्वाग्रह से प्रेरित ज्ञान के सहारे राष्ट्रीय नेताओं की तमाम उपलब्धियों को नकारती यह पीढी देश की आज़ादी के लिये केवल द्वतीय विश्वयुद्ध में कमजोर हो गये अंग्रेजों और १९४६ में हुये नौसैनिक विद्रोह को ज़िम्मेदार मानती है।
अपनी स्थापनों से जौं भर ना डिगने को तैयार ये वर्ग सिर्फ वह पढता और सहेजता है जो उस के तर्कों को पुष्ट करता है। इस ऊर्जावान पीढी के लिये गोडसे गांधी से बडा देशभक्त है।
नेहरू को गालियां देने वाला यह वर्ग अगर जनरल मोहनसिंह का वह लेख पढे जिसमे उन्होने बताया है कि १९४२-४३ में बारतीय सैनिकों के बीच नेहरू की लोकप्रियता सुभाष से भी ज़्यादा थी।ये लोकप्रियता क्या चरित्रहीन और अहंकारी नेहरू की थी?बहुत से लोग सवाल कर सकते हैं कि कौन जनरल मोहनसिंह? फिर तो आप को ये भी नहीं पता होगा कि जब शीलभद्र याजी सुभाष का संदेश लेकर डा० हेडेगेवार के पास पहुंचे कि आप राष्ट्र के इस युद्ध में अपने स्वयंसेवकों को उतारिये तो उनका ज़बाव था हमारे स्वयंसेवकों में अधिकांश शिशु और अनाडी हैं?लोहिया ने कहा---सुभाष फासिस्ट है अंग्रेजों से पहले तो मैं सुभाष से लडूंगा।किस-किस को रोयें----जिसकी पूंछ उठाकर देखा-----------मेरी बातें बहुत से मित्रों को अच्छी नहीं लगेंगी खुद मैं भी पछता रहा हूं कि मैने सोने के अंडे देने वाले कविसम्मेलनों के मंचों को छोडकर कुंठा और निराशा के महासागर में धकेल देने वाले क्रांतिकारी साहित्य में अपना समय क्या स्वयं को ही नष्ट क्यों कर दिया?

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