हिंदी फिल्मों में स्वास्थ्य हमेशा महत्वपूर्ण विषयवस्तु रहा है


हिंदी फिल्मों ने अपने प्रारंभिक काल से ही मनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक कुरीतियों की भर्त्सना और सांस्कृतिक उन्नयन के प्रति अपनी निष्ठा प्रदर्शित की तो स्वास्थ्य जैसे जीवन को गहरे तक प्रभावित करने वाले विषयों को भि सेलूलाइड पर उतारने में कोताही नहीं बरती है।चाहें वह ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों का ज़माना हो या फिर रंगीन फिल्मों का हिंदी फिल्मों में स्वास्थ्य हमेशा महत्वपूर्ण विषयवस्तु रहा है।स्वास्थ्य से जुडे भावनात्मक और सामाजिक पक्ष को हिंदी फिल्मों मे पूरी गंभीरता से चित्रत किया जाता रहा है।
इस क्रम मे १९७० मे रिलीज हुई 'खिलौना' एक उल्लेखनीय फिल्म है।फिल्म की मुख्य भूमिकाओं मे संजीव कुमार और मुमताज ने अपने अभिनय की जिन ऊंचाइयों को छुआ उसके लिये आज भी इस फिल्म की चर्चा की जाती है।
फिल्म का कथानक विजयकमल (संजीव कुमार) जोकि ठाकुर सूरज सिंह (विपिन गुप्ता) का बेटा है,के इर्द-गिर्द घूमता है।विजयकमल अपनी प्रेमिका सपना की शादी बिहारी (शत्रुघन सिन्हा) के साथ होने और दीवाली की रात सपना के आत्महत्या कर लेने के कारण ,पागल हो जाता है। ठाकुर सूरज सिंह को विश्वास है कि शादी के बाद विजयकमल ठीक हो सकता है। अपने इस विश्वास के कारण ठाकुर सूरज सिंह एक तवायफ चांद (मुमताज) को विजयकमल (संजीव कुमार) से शादी करने के लिये तैयार कर लेता है। चांद और विजयकमल के बीच संबंध और विजयकमल का पागलपन से बाहर आना,चांद का गर्भवती होना,बिहारी की कुटिलता आदि 'खिलौना' के वे नाटकीय घटनाक्रम हैं जिनके बीच निर्देशक चंदर बोहरा ने पागलपन की समस्या से जुडी दुश्वारियों और विसंगतियों को बखूवी रेखांकित किया है।मानसिक आघात से पागल नौजवान की भूमिका में यदि संजीवकुमार बेजोड हैं तो तवायफ की मानसिकता और भावों को जिस कुशलता से मुमताज ने व्यक्त किया है उसके चलते 'खिलौना' हिंदी सिनेमा की सर्वकालिक दर्शनीय फिल्मों में शुमार की जाती है।६ फिल्मफेयर नामीनेशन हासिल करने वाली खिलौना को 'फिल्मफेयर बेस्ट मूवी अवार्ड' तथा मुमताज को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्मफेयर अवार्ड मिला ।गुलशन नंदा की चुस्त पटकथा तथा लक्ष्मी-प्यारे के कर्णप्रिय संगीत से सजी संवरी 'खिलौना'' पागलपन' के मुद्दे से जूझती एक अविस्मरणीय फिल्म थी।
ह्रषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन के बेमिसाल अभिनय से सजी १९७१ में रिलीज हुई 'आनंद' को ‘इंडिया टाइम्स ‘ने बालीवुड की '२५ सर्वश्रेष्ठ दर्शनीय फिल्मों ' मे स्थान दिया है।कैंसर (लिम्फोस्कर्मा आफ इंटेस्टाइन) से जूझते आनंद सहगल (राजेश खन्ना) और डा० भास्कर बनर्जी ( अमिताभ बच्चन) ने एक ओर कैंसर की बीमारी की गंभीरता तो दूसरी ओर मित्रता के रिश्ते को नये आयाम दिये।
इस फिल्म की कहानी आनंद सहगल(राजेश खन्ना) जोकि अपने जीवन के अमतिम तीन महीने अपने दोस्त कुलकर्णी(रमेश देव) के साथ बिताने आया है के इर्द-गिर्द घूमती है।आनंद ज़िंदगी को भरपूर जीना चाहता है।आनंद के बरक्स डा० भास्कर बनर्जी(अमिताभ बच्चन) जो अपने देश और जीवन के हालातों से नाराज है वह यथार्त में जीता है।आनंद की मस्ती ज़िंदगी को भरपूर जी लेने की अदा डा० भास्कर बनर्जी पर एक ऐसा कभि ना भुलने वाला असर छोडती है कि वह आनंद के जीवन पर एक पुस्तक लिखने का फैसला करता है।
फिल्म वर्णनात्मक शैली में है।डा० भास्कर बनर्जी अपनी डायरी में आनंद से अपनी पहली मुलाकात के बारे में और फिर कैसे आनंद से उसका रिश्ता एक डाक्टर -मरीज के रिश्ते से एक दोस्त के रिश्ते मे और फिर एक ऐसी दोस्ती में बदल जाता है जो अविस्मरणीय बन जाती है।अंत में किस तरह कैसर से मरता आनंद किस तरह डा० भास्कर बनर्जी के जिंदघि के प्रति समग्र दृष्टिकोण को बदल जाता है।
कुल सात फिल्मफेयर अवार्ड जीतने वाली "आनंद" ना केवल हिंदी सिनेमा की सर्वकालिक २५ दर्शनीय फिल्मों में स्तान रखती है अपितु-राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन के फिल्मी केरियर को नयी ऊंचाइयां देने के लिये भि या द की जाती है।इस फिल्म ने एक ओर ह्रषीकेश मुखर्जी के निर्देशन तो दूसरी ओर गुलज़ार के संवाद और गीतों को भि एक विशिष्ट पहचान दि पर सबसे बढकर इस फिल्म ने कैंसर जैसी बीमारी की भयावहता तथा उससे जूझने के आवश्यक जिज़ीवीषा को भी बखूवी रेखांकित किया।
१९७५ में रिलीज हुई 'मिली' में कैंसर (पर्सीणियस एनीमिया) से जूझती 'मिली' (जया भादुडी) और उसके शराबी हताश पडोसी शेखर (अमिताभ बच्चन) का जीवंत अभिनय 'मिली को एक दर्शनीय फिल्म बना देता है।'मिली' एक ज़िंदादिल और खुशमिज़ाज लडकी है जो हर तरफ खुशियां लुटाती है जबकि उसका नया आया पडोसी एक जीवन से हारा हताश शराबी है।'मिली' धीरे धीरे शेखर की प्रेरणा बन जाती है पर जब शेखर को 'मिली' की बीमारी के बारे में पता चलता है तो वहां से भाग जाना चाहता है।शेखर मिली से प्यार करने लगा है ।वह मिली को मरते हुये नहीं देख सकता।एक पडोसी के समझाने पर वह भागने के अपने निर्णय पर पुनर्विचार करता है और मिली के समक्ष शादी का प्रस्ताव रखता है।'मिली' से शादी कर शेखर उसे इलाज के लिये विदेश ले जाता है।
अमिताभ बच्चन और जया भादुडी के द्वारा अभिनीत मुख्य भुमिकाओं वाली 'मिली' का कर्णप्रिय संगीत एस०डी० बर्मन ने और गीत योगेश ने लिखे थे।'मिली' के लिये अमिताभ बच्चन को बेस्ट एक्टर का अवार्ड भी मिला था।'मिली' कैंसर की भयावहता और उससे लडने के लिये आवश्यक जिज़ीविषा को रेखांकित करने में पूर्णतया सफल रही।
'कैंसर' की बीमारी पर केंद्रित फिल्मों में १९८२ में रिलीज 'दर्द का रिश्ता' का उल्लेख किये बिना कैंसर पर केंद्रित फिल्मों की चर्चा अधूरी ही रहेगी।' दर्द का रिश्ता' का निर्माण-निर्देशन तथा मुख्य भुमिका अभिनेता सुनील दत्त ने निभायी थी।अपनी पत्नी प्रख्यात अभिनेत्री नरगिस दत्त की ब्लड कैंसर से मृत्यु होने के बाद सुनीलद्त ने 'दर्द का रिश्ता ' का निर्माण किया।इस फिल्म का कथानक ब्लड कैंसर तथा प्रतिभा पलायन पर केंद्रित था।
'दर्द का रिश्ता ' का नायक रविकांत शर्मा(सुनील दत्त)अमेरिका में डाक्टर है।उसकी पत्नी (स्मिता पाटिल) भी एक डाक्टर है।रविकांत शर्मा भारत वापस जाकर अपने देश वासियों की सेवा करना चाहता है जबकि स्मिता उसकी भारत वापसी का विरोध करती है।यह विरोध इतना बढता है कि अंततः दोनो अलग हो जाते हैं।रविकांत शर्मा(सुनीलदत्त) भारत वापस आकर एक बडे अस्पताल में प्रैक्टिस करने लगता है।परिस्थितिवश रविकांत को आशा ( रीनाराय) से विवाह करना पडता है।रविकांत के सुखी शांत जीवन में आशा की ब्लड कैंसर से मृत्यु होने से तूफान आ जाता है कुछ ही वर्षों में रविकांत और आशा की बेटी खुशबू घर की सारी ज़िम्मेदारियांसंभालने लगती है डा० रविकांत पूरी तरह से अपने अस्पताल और मरीजों की सेवा में लग जाता है पर रविकांत तब भीतर तक हिल जाता है जब उसे पता चलता है कि उसकी बेटी को भी ब्लड कैंसर है।खुशबू को इलाज़ के लिये अमेरिका ले जाया जाता है।खुशबू को जिस अस्पताल में भर्ती किया जाता है वहां उसकी पूर्व पत्नी कैंसर विभग की इंचार्ज है और उसकी ताज़ा रिसर्च तथा रविकांत और स्मिता के बेटे के बोन मेरो प्रत्यारोपण से अंततः खुशबू ब्लड कैंसर से जंग जीत जाती है।दर्द का रिश्ता'ब्लड कैंसर के विषय पर बनी सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्मों में से एक है।
१९९२ में रिलीज हुई 'याद रखेगी दुनिया'दीपक आनंद के निर्देशन में बनी रोमांटिक कामेडी थी जिसमें फिल्म का नायक विकी आनंद (आदित्य पंचोली)कालेज़ से आनर्स की डिग्री लेकर इस मौके को सेलीब्रेट करने के लिये जाते समय एक दुर्घटना का शिकार हो जाता है।अस्पताल में मेडिकल परीक्षणों से पता चलता है कि विकी एक गंभीर बीमारी से ग्रस्त है।जीवन से निराश होकर शांति और एकांत की तलाश में विकी ऊटी चला जाता है जहां उसकी मुलाकात नैना ( रूखसार) से होती है।विकी ,नैना को प्यार करने लगता है।नैना भी एक गंभीर बीमारी से ग्रस्त है।नैना की लाइलाज़ बीमारी के बारे में जानकर भी विकी उससे शादी कर लेता है।कई नाटकीय घटनाक्रमों से भरी ये फिल्म गंभीर बीमारियों से जूझ रहे एक प्रेमी युगल के मनोभावों को व्यक्त करती बेहतरीन फिल्म थी।
२००३ में रिलीज हुई 'मुन्ना भाई एम बी बी एस'राजकुमार हिरानी के निर्देशन और विधु विनोद चोपडा के प्रोडक्शनमें बनी एक सुपर हिट फिल्म थी।शिक्षा, स्वास्थ्य और सिस्टम पर करारा व्यंग्य करती 'मुन्ना भाई एम बी बी एस'चुटीले अंदाज़ मेंमुन्ना भाई( संजय दत्त)जोकि एक अंडर वर्ल्ड डान है और उसका असली नाम मुरली प्रसाद शर्मा है।मुन्ना भाई के पिता उसे डाक्टर बनाना चाहते थे।पिता की इच्छा को पूरी करने के लिये मुन्ना भाई एक नकली चैरिटेबल अस्पताल अपने पिता हरिप्रसाद शर्मा(सुनील दत्त) के नाम पर खोलता है।एक नाटकीय घटनाक्रम में मुन्ना भाई के पिता (सुनील दत्त) और मां (रोहिणी हटंगणी)मुंबई अपने बेटे के पास मुंबई आ जाते हैं।संयोगवश हरिप्रसाद शर्मा की मुलाकात डा० अस्थाना(बोमेन ईरानी)जोकि एक मेडिकल कालेज में डीन है से होती है।डा० अस्थाना द्वारा मुन्ना भाई का अपमान ।मुन्ना भाई का एम बी बी एस करने का फैसला और सर्किट( अरशद वारसी)का मुन्ना की हर बात में बिना सवाल किये सहयोग ।डा० अस्थाना की बेटी डा०सुमन (ग्रेसी सिंह) का मुन्ना भाई से प्यार जैसे तमाम नाटकीय और भावुक प्रसंगों के बीच हास्य-व्यंग्य की चाशनी में लिपटा स्वास्थ्य ,शिक्षा और व्यवस्था की संवेदनहीनता को रेखांकित करती 'मुन्ना भाई एम बी बी एस' ने दर्शकों के मनो मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोडा था।फिल्म फेयर बेस्ट फिल्म अवार्ड,फिल्म फेयर क्रिटिक अवार्ड फार बेस्ट मूवी,फिल्म फेयर बेस्ट स्क्रीन प्ले अवार्ड समेत दर्जनों पुरस्कार जीतने वाली 'मुन्ना भाई एम बी बीएस' ने पूरी शिद्दत से मेडिकल शिक्षा के क्षेत्र में और ज़्यादा संवेदनशील होने की आवश्यकता को रेखांकित किया।
वर्ष २००८ में रिलीज़ रिलीज़ 'यू मी और हम'फिल्म का कथानक 'अलज़ाइमर' की असाध्य बीमारी और उसकी वज़ह से रोगी और उसके अपनों को होने वाले कष्टों को बखूवी बयान करता है।
फिल्म की कहानी अजय (अजय देवगन)और उसके बेटे की बातचीत से शुरू होती है।कहानी फ्लैश बैक में चली जाती है।जहाज़ पर २५ साल पहले का अजय देवगन अपने दोस्तों निखिल (सुमित राघवन)और रीना,जीतू (राहुल देव)और नताशा (इशा श्रवण )के साथ है।ज़हाज़ पर ही अजय की मुलाकात प्रिया (काजोल) से होती है।शुरूआती नोक झोक के बाद प्रिया ( काजोल) और अजय एक दूसरे से प्यार करने लगते हैं और फिर उनकी शादी हो जाती है।एकाएक अजय को प्रिया की अलज़ाइमर की बीमारी और प्रेग्नेंसी के बारे पता चलता है।अजय को अब प्रिया का प्रग्नेंसी के कारण और भी अधिक ध्यान रखना पडता है।आखिर प्रिया एक बच्चे को जन्म देती है।कहानी आगे बढती है।बेटे के जन्म के बाद प्रिया की बीमारी बढती जाती है।आखिरकार अजय प्रिया को अलज़ाइमर के रोगियों के लिये बने आश्रय स्थल पर छोडने को तैयार हो जाता है।अजय बहुत हताश है और वह समझ नही पाता है कि उसने ठीक किया या गलत पर निखिल और रीमा अजय को प्रिया को वापस लाने के लिये कहते हैं।एकाएक अजय को अपनी गलती महसूस होती है और वह प्रिया को वापस लाकर उसका दिल जीत लेता है।फिल्म के अंत में राज खुलता है कि जिस महिला को अजय कहानी सुना रहा है वही अजय की पत्नी प्रिया है और वे अपनी शादी की २५ वीं सालगिरह मना रहे हैं।'यू, मी और हम'अल्ज़ाइमर की समस्या को बखूवी उठाती है। इस फिल्म के लिये काजोल को २००९ के बेस्ट एक्ट्रेस अवार्ड फिल्मफेयर तथा २००९ का स्टार स्क्रीन अवार्ड फार बेस्ट एक्ट्रेस मिला।यद्यपि इस फिल्म को बाक्स आफिस पर कुछ खास सफलता नहीं मिली।शारीरिक स्वास्थ्य के अतिरिक्त मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे को भी हिंदी फिल्मों में प्रमुखता से उठाया गया है।पिछले कुछ वर्षों मे डिसलेक्सिया की बीमारी पर केंद्रित 'तारे ज़मीन पर','गूंगे बहरे युगल' की कहानी पर आधारित 'खामोशी'और 'ब्लैक','एसपरज़र सिंड्रोम'की समस्या से दो चार होती 'माइ नेम इज खान',मेंटली डिसएबल्ड की समस्या को बयां करती 'कोई मिल गया',सीजोफ्रेनिया की समस्या को उज़ागर करती १५ पार्क एवेन्यू,'शार्ट टर्म मेमोरी लास' के बारे में बताती 'गज़नी'तथा 'प्रोगेरिया'की समस्या को चित्रित करती 'पा'वे चुनिंदा फिल्में हैं जिनमें स्वास्थ्य के मानसिक पक्ष को बडी कुशलता से उठाया गया था।
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