वह ईश्वर भी निकृष्ट है जो मनुष्य को मान ना देता हो
धर्म अधर्म ,नास्तिक-आस्तिक ,आस्था
-अनास्था आदि विषयों से मानव शायद तभी से टकराता रहा है जबसे उसने सामूहिक रूप से
रहना शुरू किया।समाजशास्त्री और धर्माचार्यों ने बहुत विचार किया है इस पर।प्रकृति
के विकराल,अद्भुत और अपराजेय शक्ति के
पीछे कोई न कोई सत्ता तो ज़रूर है,कोई तो है जो मेरी मदद करेगा इस
अपराजेय सत्ता को पराजित करने में।शायद उसी सत्ता को मनुष्य ने ईश्वर नाम दिया और
फिर वह ईश्वर मनुष्य से बडा और बडा होता चला गया।सनातन धर्म में तो 'यत
धारयति स धर्मो"अर्थात धर्म जीवन शैली है ईश्वर को पाने की सीढी नही।धर्म जो
जीवन जीने का ढंग था वह धीरे-धीरे जीवन पर छाता गया,जीवन को ही
चलाने लगा धर्म मुख्य हो गया जीवन गौड।धर्म के लिये हजारों जीवनों की बलि चढाई
जाने लगी।ये तो हुआ धर्म और आस्था के साथ और नास्तिक जिन्होने अपने को किसी सहारे
से दूर रखा था जो सब कुछ स्वतः और प्राकृतिक ढंग से हुआ मानते थे वे कभी मार्क्स
और माओ तो कभी भगतसिंह में सहारा ढूढने लगे।ये तो इतिहास के विद्यार्थी ही बता
पायेंगे कि मारकाट आस्तिकों ने ज़्यादा मचायी या नास्तिकों ने।मजे की बात यह है कि
दोनो ने ये काम मनुष्य और मनुष्यता के नाम पर किया पर लाभ हमेशा किसी व्यक्ति
विशेष या समुदाय विशेष ने उठाया।
मेरे कुछ मित्रों को भगतसिंह का नाम इसमें शामिल करने पर
आपत्ति हो सकती है पर उनका नाम कल ऐसे ही संदर्भ में उनके एक भक्त ने लिया था और
शायद भगतसिंह का नाम उसमें शामिल ना होता तो मैं यह पोस्ट लिखता भी नहीं।
मेरा यह मानना है कि जिस तरह गांधी सरनेम लगा लेने से हर
व्यक्ति महात्मा नहीं हो जाता और गोडसे से नाथूराम वैसे ही भगतसिंह की दुहाई देकर
नास्तिकता को जस्टीफाई नहीं किया जा सकता।हममें से बहुतों ने भगतसिंह का--'मैं
नास्तिक क्यों हूं' पढा होगा ।अतः मै उसकी विषयवस्तु पर ना जाकर सिर्फ थोडी सी
रोशनी भगतसिंह की नास्तिकता और चंद्रशेखर आज़ाद की आस्तिकता पर डालना चाहूंगा।
जब चंद्रशेखर आज़ाद को उनकी अनुपस्थिति में क्रांतिकारी दल का
नेता चुन लिया गया और दल को चलाने की ज़िम्मेदारी आज़ाद पर आ गयी तो सबने तय किया कि
एक मठ का महंत मरने वाला है यदि पंडितजी उस महंत के चेले बन जाये और कुछ दिनों बाद
महंत के मर जाने पर मठ की समपत्ति पर कब्ज़ा कर क्रांतिकारी कार्य में काम लाया
जाये।आज़ाद ने पूरी निष्ठा से ६ महीने तक
मठ के महंत और देवता दोनो की सेवा की पर महंत को मरता ना देख मठ छोडकर चले आये।
दल में जब उन्हें भगतसिंह के मांसाहारी और नास्तिक होने की बात
पता चली तो वे बडे पशोपेस में पड गये।पर
हनुमान चालीसा का नियमित पाठ कर दंड पेलने वाले आज़ाद की
आस्तिकता का भगतसिंह की नास्तिकता से समन्वय देखिये कि भगतसिंह की बनायी मांसाहारी
बिरियानि से मांस के टुकडे सहज भाव से चुनकर भगतसिंह को पकडाने वाले उस कर्मकांडी
ब्राह्मण के चेहरे पर कभी शिकन नहीं आयी।जब भगतसिंह ने स्वयं असेमबली मे बम फेकने
की ज़िद की तो आज़ाद ने कहा अभी संगठन को तुम्हारी जरुरत है पर भगतसिंह की ज़िद का
मान रखते हुये आज़ाद की आस्तिकता और भगतसिंह की नास्तिकता में द्वंद्व नही हुआ।
कहने का तात्पर्य यह है कि आज मीडिया के तमाम माध्यमों जिसमे
सोशल मीडिया मे कुछ ज़्यादा ही धर्म और देश की फिक्र दिखाई पडती है ।वहां ईमानदारी
से यह मूल्यांकन करने की ज़रूरत है कि लोग बहस के लिये बहस कर रहे हैं या फिर स्वयं
को देश और धर्म का अलंबरदार साबित करने को।मेरी दृष्टि में तो वह ईश्वर भी निकृष्ट
है जो मनुष्य को मान ना देता हो फिर उस मनुष्य से ,उस आस्था और
अनास्था से कोई सहानुभूति कम से कम मुझे नही है जो निजी हित के लिये अपने को
बुद्धिजीवी साबित करने के लिये भगतसिंह या गांधी की प्रशंसा करे या गाली दे।
टिप्पणियाँ
आपके विचारों से पूर्णतया सहमत हूँ..
सादर
अनु