गुलाम मानसिकता

हिंदी अंगरेजी की बहस अब इतनी बासी हो चुकी है कि इसे और अधिक खींचने का मतलब कीचड मे पत्थर मारना होगा ।हमारे देश मे अंगरेजी का फलना फूलना मैकाले और उपनिवेशवाद की देन तो है ही हजार साल मे निर्मित गुलाम मानसिकता भी है।गोरी चमडी के लिए जो आकर्षण हममे है उसकी झलक तो गोरा बनाने के विग्यापनो मे ही मिल जाती है।वरना बौधिक तौर यूरोपियन हमसे कम दिवालिया नही हैं।पिछले दिनों मेरी मुलाकात एक जर्मन महिला एंजा से हुई जो योग के आकर्षण मे भारत आयी थी।बातचीत के दौरान मैने मैक्समुलर की चरचा की तो जिस तरह से उस महिला ने पछतावे के अंदाज मे मैक्समूलर के बारे मे अनभिग्यता जाहिर की उससे लग गया कि यूरोप का समाज भी कोई सजग समाज नही है।मैक्समुलर की भी स्थिति बहुत हद तक हमारे किशोरीदास वाजपेयी जैसी हो गयी है।अतःपं० सुरेशनीरव और राजमणि जी को हिंदी और हिंदुस्तान के बारे मे ज्यादा दुखी होने की आवश्यकता नही है जब सारी दुनिया के बुधिजीवी उपेक्षित हैं तो हम ही क्यों दुखी हों।

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