कुछ रचो
कुछ रचो
कुछ
लोगों के लिये शब्द
तन
कर खडे होने का नहीं
पेट
भरने का ज़रिया हैं
बिकाऊ
माल हैं
प्रोडक्ट
हैं
अपनी
जगह उनके मज़में
उनकी
कलाबाज़ियां करेक्ट हैं
हर
व्यक्ति कोई न कोई
मज़बूरी
है
पर,शब्द के उपयोग में सावधानी ज़रूरी है
आज
जब कंप्यूटर तक वायस कोड से चलने लगा है
तो
शब्द की अुशासनहीनता से कुछ भी हो सकता है
और
बाज़ार में बिकते -बिकते शब्द
घर
को भी बाज़ार बना सकता है
शब्द
के 'मार्केटिंग-मेन'
शब्दों
को बाज़ार में नंगा मत नचाओ
घर
को बाज़ार होने चसे बचाओ
बाज़ारू
होने में वक्त नहीं लगता है
'मार्केटिंग
मैन" सिर्फ अपने आपको ठगता है
अतः
मंत्र और गाली में फर्क करो
जहां
पवित्रता हो
मन हो
शब्द
को वहां धरो
वरना
,एक दिन ये शब्द तुम्हे ही मुंह चिढायेंगे
मज़में
का कोई चरित्र नहीं होता तुम्हारे सामने ही
अन्य
,तुमसे घटिया मज़मा लगायेंगे
घटियापन
की इस दौड में शब्द का क्या होगा?
पर,तुम्हें इससे क्या मतलब?
तुमने
तो फूहडता की तालियां सुनीं हैं
सृजन
के दर्द को कहां भोगा?
पर,सृजन के दर्द से उपजे आनंद को बंध्या और बंजर
कहां
जानते हैं?
वे
तो क्षारीय --तल्ख बने रहने में ही जीवन की
सार्थकता
मानते हैं
हो
सके तो बंध्या और बंजर होने से बचो
मज़मेंबाज़ी
पेट
भरने
का ज़रिया हो सकती है
पर,देश, समाज़
और अपने लिये भी
कुछ रचो------------।
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