प्रेम

कभी पहुंच जाऊं तुम्हारे घर 
तो क्या चौंकोगी नहीं,
शायद तुम घबरा जाओ
अपने उनसे चचेरा,ममेरा या तयेरा भाई 
या, भाई की तरह के 'कलीग' कहकर मिलवाओ
बिठा जाओ उस व्यकि्त को बात करने
जो सबसे अप्रिय हो 
और उसी से करनी पड जाये मुझे
राजनीति या साहित्य पर वह अनचाही बहस जिसे
करते करते अक्सर मैं उलझ
जाया करता था तुमसे
क्योंकि गुस्से तुम कभी खिले गेंदा सी या
तो कभी सुर्ख गुलाब सी लगती थीं
और मेरा मनो-मस्तिष्क तुम्हारे शब्दों की गंध से सुवासित होता
रच लेता था
नये-नये तर्क,दर्शन चिंतन और काव्य
जो कभी हारने नहीं देते थे मुझे
परंतु तुम्हारे'उनसे'
जीत पाने की तो कोई संभावना नहीं दिखाई देती है मुझको
क्योंकि 'उनसे' बातचीत करते
मन में कैक्टस उग आयेंगे
वज़ह ?
तो मुझे भी नहीं मालूम
शायद प्रेम हो इसकी वज़ह
जो फूल से नाज़ुक और
शूल से तीक्ष्ण होता है।


---------अरविंद पथिक
9910416496

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