जय लोक मंगल: नववर्ष की पूर्वसंध्या: मित्रों कल ' राइटर्स डेस्क ' नोएडा के तत्वावधान में एक खूबसूरत शाम का आयोजन किया गया।अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन के साहित्यकार...
संदर्भ हिंदी दिवस --------------------------- हिंदी के विकास में विदेशी विद्वानों का योगदान -------------------------------------अरविन्द पथिक जिस ब्रिटिश सरकार के एक अधिकारी मैकाले ने क्लर्क बनाने के नाम पर अंग्रेजी जानने की अनिवार्यता शुरू की थी- बहुत लोगों को जानकर हैरत हो सकती है कि उसी सरकार ने 1881 में निर्णय कर लिया था कि भारतीय सिविल सेवा में वही अफसर चुने जाएंगे , जिन्हें हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं की समझ है। वैसे हिंदी का प्रशासनिक महत्व अंग्रेज सरकार ने सन 1800 से पहले ही समझना शुरू कर दिया था। दिलचस्प बात ये है कि इसके कारण कतिपय अंग्रेज विद्वान ही थे। कई लोगों को यह जानकार आश्चर्य होगा कि हिंदी का पहला व्याकरण डच भाषा में 1698 में लिखा गया था। इसे हॉलैड निवासी जॉन जीशुआ कैटलर ने हिंदुस्तानी भाषा नाम से लिखा थ...
आज शहीद दिवस है राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का बलिदान दिवस।गांधीजी के अवदान को लेकर तमाम बातें की जा सकती हैं पर शांति ,अहिंसा और प्रेम का विरोध कौन कर सकता है।महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुये यही कहना चाहता हूंगांधीजी के आंदोलन का देश की आज़ादी में महत्वपूर्ण स्थान है पर आज़ादी के लिये तमाम कारक थे उनमें से एक नौसेना में विद्रोह जोकि सुभाष के क्रांतिकारी प्रयासों का परिणाम था।भाई इतिहास का थोडा निरपेक्ष रहकर अध्ययन करें तो पायेंगे कि आज़ादी का संघर्ष १८५७ से शूरू होकर फिर थमा नहीं प्रथम लाहौर षडयंत्र केस,काकोरी केस-एच आर ए का योगदान,भगतसिंह एवं साथियों का बलिदान -एच एस आर ए का योगदान ,१९४२ का छात्रों द्वारा चलाया गया आंदोलन और फिर अंतिम कील नेताजी सुभाष के संघर्ष से प्रेरित नौसेनिक विद्रोह आज़ादी प्रदान करने की दिशा मे महत्वपूर्ण कदम रहे।गांधीजी की हैसियत पर सवाल उठाने की हैसियत पाने में हमे कई जन्म लगेंगे पर इतिहास के प्रति द्रष्टि एकांगी नहीं होनी चाहिये।
शाह साहब की मौत की खबर दिल्ली में आग की तरह फैली पर दिल्ली तो पिछले पचास बरस से बदअमनी की आग में झुलस रही थी .शाह साहब ने अपनी जिंदगी में दस बादशाहों को तख्त से तख्ते तक का सफ़र करते देखा था .दिल्ली के तख्त पर कब्जा कर बाबर ने जिस मुगल वंश की शुरुआत लगभग डेढ़ सौ बरस पहले की थी ,के तख्त पर अब शाह आलम काबिज़ था .आलमगीर की मौत के बाद दिल्ली के तख्त पर जिस तरह से एक के बाद एक निकम्मे और नाकारा बादशाह बैठे थे उनसे हिंदुस्तान को पूरी तौर पर इस्लामी मुल्क बनाने का ख्वाब अपनी आँखों के सामने टूटते बिखरते देख शाह साहब ने बहादुरशाह से लेकर मुहम्मद शाह तक हर बादशाह को हिंदुस्तान में मुकम्मल तौर पर शरिया नाफ़िज करने के लिए तैयार किया था पर हर बार इन निकम्मे शहंशाहों से उन्हें मायूसी ही हासिल हुयी थी .और जब तख्त की हिफाजत के लिए इन बेगैरत और बदजात बादशाहों ने कभी मराठों ,कभी जाटों तो कभी राजपूतों के आगे गिडगिडाना शुरू कर दिया तो शाह साहब को यकीन हो गया कि अब बाबर की इस नस्ल में अब इतनी कुव्वत नहीं बची ...
टिप्पणियाँ