लो पथिक जी हो गये हो आप भी चालीस के


मित्रों आज आपका नाचीज़ अरविंद पथिक चालीस बरस का हो गया।कुछ मित्रों को याद था उनकी शुभकामनायें मिल गयीं जिन्हें याद नहीं वे जानने के बाद कुछ मुखर तो कुछ नीरव बधाई देंगे ही।चुनिंदा मित्रों ने मेरे इस छोटे से घर पर पत्तल जूठी करने और काव्यात्मक आशीष देना स्वीकार किया है,उनका सब का आभार,आज एक कविता में आत्मालाप किया है सो आपके समक्ष रक रहा हूं,काव्यात्मक सौंदर्य को ढूढने वालो को कुछ हासिल हो पायेगा  इसमें संदेह है केवल आत्म निरीक्षण और आत्मालाप मान कर ग्रहण करें---
लो पथिक जी हो गये हो आप भी चालीस के
ढीली कर लो त्योरियांअब नही हो बीस के
कब गया बचपन ना जाना,जाने को है अब ज़वानी
अब नहीं बाकी वो लहज़ा ना ही अब है वह रवानी

श्वेत कुछ-कुछ हो चले हैं, केश अब तो शीश के
लो पथिक जी हो गये हो आप भी चालीस के


पीछे मुडकर देखिये तो ज़्यादा कुछ पाया नही है
इतने सालों को गंवाकर हाथ कुछ आया नहीं है
होम करते हाथ   कितनी बार ही तुमने जलाये
अनामंत्रित अपयशो के काफिले अनगिनत आये

याद करिये उन दिनों को आप जब थे बीस के
लो पथिक जी हो गये हो  आप भी चालीस के

गांव छूटा पर नगर के अभी तक हो ना सके हो
'' नगर में मखमली  सेज पर सो ना सके हो
संकटों में स्वयं का वक्ष ही  है    काम आया
व्यर्थ है चर्चा  जिनके लिये हर एक ज़ख्म खाया?

याद रखिये नहीं हैं अब बीस के,पच्चीस के या तीस के
 हांपथिक जी हो गये हो  आप भी चालीस के


कितने ही झंझावतों के रूख   कहीं को मोड आये
जोडे कितनों से ही नाते और कितनों को छोड आये
पर, नहीं छोडा कभी पथ सत्यका ईमान का
सबसे ज़यादा ध्यान रक्खा  तुमने स्व के मान का

लगता तो है ,आप भी प्रिय हैं प्रभु के ,ईश के
लो पथिक जी हो गये हो आप भी चालीस के



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