दरअसल हम घोर हिप्पोक्रेट हैं
"तमाम नारीवादी आंदोलनों के बाबज़ूद आज भी नारी के बारे में समाज के एक बडे वर्ग की सोच देह के स्तर से आगे नहीं बढी है ।तथाकथित प्रगतिशील और बुद्धिजीवी ,साहित्यकार और समाजसेवी भी किसी शोषिता और वंचिता की सहायता करते समय न्याय -अन्याय की बात परे रखकर सबसे पहले विचार यह करते हैं कि वह नारी कहीं समाज को पथभ्रष्ट तो नहीं कर रही।ये कैसी विडंबना है कि महानगरों की तथाकथित सभ्य सोसाइटी में 'देह' जहां कोई मुद्दा ही नहीं रह गया है वहीं छोटे शहरों-कसबों में किसी महिला के प्रति हुये अन्याय का समर्थन ना करने के लिये हमारे तमाम कर्णधार जिसमे नेता,समाजसेवी,पत्रकार,कवि,लेखक याने समाज के नीति निर्धारक सारे तत्व शामिल हैं।"
मेरा यह कथन किसी भावुकता या सतही सोच का नतीज़ा नही अपितु अभी हाल की घटनाओं से हुई गहन वैचारिक मुठभेड का नतीजा है। दरअसल हम घोर हिप्पोक्रेट हैं।
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