छत की बार करो मत भाई छत ने बहुत सताया है
छत
की बार करो
मत भाई छत
ने बहुत सताया
है
प्यार का क,ख,ग,घ हमको
छत ने ही
सिखलाया है
शहरों में छत
ललचाती है, गांवों
में इठलाती है
जीवन
भर धक्के खाकर
भी,छत ही
नही मिल पाती
शरमाती
छत,इठलाती छत
,सजती और संवरती
है
बडे बुज़ुर्गों
की नज़रों में
ये छत बहुत
खटकती है
बडे-बडे पद
मिल सकते हैं
छत मिलना आसान
नहीं
महानगर
में छत पाने
से बढ कर
कुछ सम्मान
जिनके
सर के ऊपर छत
है छत की
कीमत क्या जानें?
फुटपाथों
पर रहने वालों
को छत वाले
ना पहिचानें
छत
भी बहुत तरह
की होतीं,कुछ
असली, कुछ नकली
भी
कुछ
होती हैं बडी
घमंडी ,कुछ होती
हैं पगली भी
यौवन
की आहट सुनकर
कुछ तितली सी
इतराती है
नज़र
मिलाती नज़र चुराती
छत थोडा घबराती
है
उम्र
के साथ छत
का भी चेहरा
रंग बदलता है
कई
बार यौवन का
बोझा छत से
नहीं संभलता है
कूद-फांद में
व्यस्त कौन है?कौन सी
छत सुनसान है
रहती
थी गुलज़ार कभी
जो वह छत
अब वीरान है
बडे
हो गये बच्चे
सारे-----, पढने को
परदेश गये
छत
पर जो रौनक
करते थे ,उनमें
बहुत विदेश गय
ज्यों-ज्यों फागुन चढता
जाता बेचैनी
बढ जाती है
छत
पर आती जाती
'अम्मा' गुमसुम सी हो
जाती है
बाबू
जी कहते हैं--"--लल्ला की क्या
याद सताती है?
अभी
दिवाली पर आया
था फिर क्यों
तू घबराती है?
कहा
तो था-- हफ्ते
भर पहले इस
होली पर आऊंगा,
'अम्मा'अब के
साथ ही अपने
तुम्हे शहर ले
जाऊंगा "
झूठे
दिलासे दे बाबूज़ी
खुद को भी
समझाते हैं
चुपके
से छत पर
जाकर वे खुद
भी नीर बहाते
हैं
बारिश
तो सह लें
पर लेकिन आंसू
सहे ना जाते
हैं
लिंटर,छप्पर,छाजन मिलकर
सारे अश्रु बहाते
हैं
छत
बूढी हो चली
ना जाने कब
किस पल में
ढह जाये?
तूफानों
को झेल गयी
जो , इक
झोंका ना सह
पाये
दीवारें
ज़र्ज़र हैं इसकी
किसी भी पल
गिर सकती हैं
हरदम
तनहाई में अब ये
रोती और सिसकती
हैं
सारे
जीवन की पूंजी
से जिस छत
का निर्माण किया
बेटा
शहर से आया
उसने उस छत
को ही उजाड
दिया
छत
से बाबूजी का
रिश्ता बेटा समझ
न पाता है
बूढे
बाप की छत
तुडवाकर वह अपनी
डलवाता है
उसे
भला क्या मतलब
इससे पिता ने
अर्घ्य चढाये थे?
नयी
नवेली बहू थी
मां जब यहीं
पे केश सुखाये
थे
बेटे
की छत पडती
है तो बाप
कहीं खो जाता
है
ये
छत उसकी नहीं
जान वो निर्मोही
हो जाता है
कहीं
भी खा ले
कहीं भी सो
ले किसी भी
परवाह नहीं
गीत,गज़ल छोडो
होंठों पर अब
तो आह -कराह
नहीं
अंतिम-यात्रा आज हो
कल हो या
हो चंद-बरस
के बाद
एक
ही है संतोष
नयी छत उसी
ज़गह पर है
आबाद
पिता
की छत धरती
से मिल चुकी
अब उसको भी
मिलना है
बंधन
तोच छतों के
अब तो बस
अनंत में खिलना
है,
जीवन
की नश्वरता का
भी छत ने
भान कराया है
छत
की बार करो
मत भाई छत
ने बहुत सताया
है।
-------------------अरविंद पथिक
टिप्पणियाँ